अंबालिका

वक्त एक ऐसा परिंदा है जो कभी नहीं रुकता, इसके बढ़ते पंखों के साथ हम और हमारे आसपास चीजें बदलती रहती हैं और इसी बदलाव में हम अपने को ढालते-ढालते जीवन गुजार देते हैं। ठीक इसी तर्ज पर आज का युग एक नई परिभाषा के साथ खड़ा हुआ है। डिजिटल दुनिया और सोशल मीडिया वक्त का तकाजा है। यह अच्छी बात है कि हम नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए हमें क्या-क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, क्या हम इस पर कभी सोचते हैं? आज के दौर में होश संभालते ही बच्चे के सामने मोबाइल की स्क्रीन चमकने लगती है और वह उसमें लीन हो जाता है। इसके एवज में सबसे पहली बलि हमारे स्वास्थ्य की हो रही है।

वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि मोबाइल का विकिरण या रेडिएशन दिमागी बीमारियों को बढ़ाता है। यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लगातार मोबाइल का प्रयोग करने से गर्दन और रीढ़ की बीमारियां बढ़ रही हैं। खासकर छोटे बच्चों के लिए यह खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि वह समय जो उनकी वृद्धि और विकास के लिए महत्त्वपूर्ण होता है, उसे बच्चे मोबाइल में गंवा रहे हैं और शारीरिक-मानसिक बीमारियों को बुलावा दे रहे हैं। यह सर्वे में बताया जा चुका है कि वह उम्र जो बीमारियों से अनजान रहता था, आज किसी हद तक मोबाइल की वजह से डाक्टर के संपर्क में रह रहा है।

विकास के इस यंत्र ने दूसरी कीमत रिश्तों की ली है। हर कोई मोबाइल जैसे निर्जीव वस्तु से ऐसे जुड़ गया है कि पास बैठे सजीव के मूल्यों को भूल गया है। एक समय ऐसा था कि भारतीय घरों में शाम के बाद सभी इकट्ठा होकर बैठते थे और अपने दुख-सुख बांटते थे। आज यह देखा जा रहा है कि कोई किसी से बस जरूरत भर ही बोल रहा है। जबकि आपस में बातचीत करने से दिल की बात निकलती है और मन हल्का होता है।

कई बार किशोर, बच्चे और युवा जो समझ बात नहीं पाते, उसे बड़े-बुजुर्ग सुलझा देते हैं। भारतीय परिवेश में संयुक्त परिवार का रूप भी इसी पर आधारित था कि वक्त-बेवक्त एक दूसरे का सहारा बना जा सके। एक साथ मिलकर कर दुख-सुख को बांटा जा सके। आज संयुक्त परिवार दुर्लभ होता जा रहा है, लेकिन एकल परिवार में भी माता-पिता और बच्चों के बीच संचार का ऐसा कुछ मिसाल नहीं मिल रहा, जिससे जीवन की गति को उचित दिशा मिले।

इस बात का ज्वलंत उदाहरण बड़ी मात्रा में हो रहीं आत्महत्याएं हैं। आज व्यक्ति खुद में इतना उलझ गया है कि उसे जीवन जीने का रास्ता भी बंद नजर आने लगा है। कारण है आत्मकेंद्रित होना और अपनी समस्याएं किसी से न कहना। यह देखने को मिलता है कि इस तरह की किसी घटना के बाद पीड़ित के मोबाइल, लैपटाप आदि उपकरण से कई ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जो उसके अवसाद या परेशानी में होने की बात को सिद्ध करते हैं।

परिवार एक दूसरे के भाव से जुड़ कर जीवन बिताने का एक यौगिक प्रबंधन है। जब कभी बच्चे किसी परेशानी में होते हैं तो घर के बड़े उनके साथ खड़े होकर उनको हिम्मत देते हैं और बुरा वक्त टल जाता है। लेकिन जब परिवार में प्रत्यक्ष वार्तालाप से ज्यादा मशीनी कारोबार का दौर चलने लगे तो समस्याएं समाप्त होने की जगह और बढ़ ही जाती हैं।

पीढ़ी दर पीढ़ी यह सिलसिला चलता आया है कि बुजुर्गों की छांव में घर के नन्हे-मुन्ने पलते-बढ़ते आए हैं और आगे जाकर वही इनकी लाठी भी बनते हैं। लेकिन आज की पीढ़ी के पास बुजुर्गों के लिए वक्त नहीं होता। वे भूल जाते हैं कि एक भौतिक वस्तु में लिप्त होकर वे उन रिश्तों से दूर हो रहे हैं, जिनकी पूर्ति बाद में नहीं की जा सकती।

सही है कि जरूरत और प्रयोग को देखते हुए अद्यतन बनना चाहिए, लेकिन इसके लिए किन शर्तों से गुजरना है, इसे भी हमें ही तय करना चाहिए। परिवार, समाज, राष्ट्र हमारे निर्माण के स्तंभ हैं। आज हम अपने वातावरण को जैसा बनाएंगे, कल हमारे बच्चे भी उसी तरह तैयार होंगे। हमें आने वाली पीढ़ी को कर्तव्य और भावयुक्त जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहिए। विकास और व्यक्तित्व के बीच होड़ नहीं लगनी चाहिए। व्यक्त्वि तभी ऊंचा होगा, जब विकास का सदुपयोग हो सके।

विज्ञान अपने साथ निर्माण और ध्वंस दोनों लाता है। हमें अपने सूझ-बूझ से निर्माण को चुनना होगा। भारतीय परिवार एक भावात्मक सांचे में पोषित होता है। माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन एक ऐसे तार से जुड़े होते हैं, जिसका एक छोर खींचा जाए तो दूसरा भी खिंचा चला आता है। ऐसा नहीं है कि हम पूरी तरह अपने आत्मीयजनों की इच्छा की अवहेलना करते हैं।

लेकिन कई बार हमारी सारी संवेदनाएं धरी की धरी रह जाती हैं और वक्त हाथ से चला जाता है। सवाल है कि क्या जीवन में भागना इतना आवश्यक है कि प्रत्यक्ष को खोने की नौबत आ जाए? या फिर जिस भेड़ दौड़ में हम शामिल हैं, क्या वही हमारे जीवन का प्राप्य है? थोड़ा रुक कर सोचने में गलत क्या है!