सुरेशचंद्र रोहरा
स्मृतियां और वह भी बालपन की मधुर होती है, जिन्हें मैं आंखों में बसा कर बिस्तर पर खो-सा जाता हूं और कब निद्रा के घनघोर अवतल में डूबने-उतरने लगता हूं, पता ही नहीं चलता। स्मृति, छोटे-छोटे चित्र, अक्स आंखों के आगे जीवंत हो जाते हैं। कभी सायास तो कभी सप्रयास, इन्हें स्मरण करना ही जीवन के सुख में क्षणों को जीना है। इन स्मृतियों में जिंदगी के जो रंग और संगीत हैं, वह क्या भुलाया जा सकता है? यह आनंद जीवन का एक ऐसा सार है, जो प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी की अपनी अमूल्य धरोहर है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम उसे कैसे देखें। उसे सुखद या त्रासदी के दिनों की स्मृति को आंखों में संजो कर सुखद पलों को कैसे जिएं!
आमतौर पर मैं रात्रि विश्राम के समय आंखें मूंदते वक्त बचपन के दिनों को स्मृति पटल पर ला सजाता हूं और उन दिनों को याद करने लगता हूं, जैसे जीवन का वह पल, जब स्मृतियां… यादें बनने की शुरुआत होती है। यानी वह क्षण जो जीवन का पहला क्षण होता है जो ‘मैं’ के रूप में अस्तित्व बन जाता है। शून्य से आरंभ यात्रा का पहला चित्र। मुझे स्मरण है कि मैं काठ के तख्त पर बैठा हूं। हाथों में कछुए का खिलौना है, पास मां और चाचा बैठे हैं। शायद वह खिलौना उन्होंने ही लाकर मुझे सौंपा है। मैं प्रफुल्लित खेल रहा हूं… चल नहीं सकता, बैठा हूं। कछुआ चल रहा है, मैं हाथ बढ़ा कर पकड़ रहा हूं और वह चलता आगे बढ़ता जाता है।
सचमुच जीवन यही है। यही जीवन का समारंभ है। जब विवेक जागृत होता है, स्मृतियां बननी प्रारंभ होती हैं। हर? जीव में यही होता है। अबोध से सबोध बनने की क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच जीवन को जीना, जब हम वह पल याद करते हैं… जब समझ का दौर शुरू हुआ था… संसार और आसपास के प्रति समझ आनी शुरू हुई थी। ये कितनी अनमोल स्मृतियां हैं।
लगभग सभी के जीवन में स्मृति एक मनमोहक महक सुगंध के रूप में मन आत्मा में समाई होती है। यह प्रकल्पना बेहद खूबसूरत है कि शिशु जब अबोध होता है तो उसके मस्तिष्क में क्या चल रहा होता है। उसकी आंखों में पहली छवि क्या होती है और आगे छोटी-छोटी छवियां जिंदगी की खूबसूरत इबारत इमारत बन जाती हैं। एक ऐसी स्मृति शृंखला, जिसका पल-पल बेशकीमती होता है और मन चाहता है बस उन्हें आंखों में बसा कर आनंद के सागर में डूबता-उतराता रहूं।
बचपन के दृश्य बेशकीमती होते हैं और आजीवन भुलाए नहीं भूलते। अगर याद करें तो आनंद की जो अनुभूति होती है, वह अनिर्वचनीय होती है। उन स्मृतियों में निस्संदेह मां-पिताजी, भाई-परिजन अंकित होते हैं। मगर आगे जब हम स्कूल के दिनों को याद करें उन छवियों को तो आनंद दोगुना हो जाता है। स्कूल का पहला दिन याद है, जब मैं टाट-पट्टी पर बैठा स्लेट और बत्ती लेकर लिखने का प्रयास कर रहा था। वह दिन जब स्कूल के प्रधानाध्यापक ने स्कूल परिसर में प्रार्थना के दरमियान एक उद्दंड बालक को बुलाया और डांटते हुए हाथ खोलने को कहा और फिर उसके हाथ पर स्केल बरसाने लगा था। वह बालक जो कुछ बड़ा था, स्केल की मार सहन सहज ही कर रहा था। स्कूल के वे दिन… प्रथम या दूसरी कक्षा के। कितने मोहक होते हैं स्लेट पर दलिया और गुड़ को लेना! स्लेट, जो लिखने पढ़ने के काम आती है, वही थाली बन जाती है! दलिया का वह स्वाद क्या कभी भूल पाऊंगा?
बचपन के वे दिन… पानी गिर रहा था, छाते में लुके-सिमटे हम भाई-बहन घर की ओर जा रहे थे। जिंदगी महसूस करने का वह पहला दिन स्मृति पटल पर अंकित है। घर के पास मैदान में प्यारे से खरगोश दौड़ रहे थे। वह मेरा पहला साबका था खरगोश से। पता चला कि कोई पालता है प्यारे और नन्हे खरगोश। होटल में बैठ कर भाई के साथ जिंदगी का पहला दोसा! आज जब मैं कल्पना करता हूं तो आनंदविभोर हो जाता हूं। स्कूल के सामने एक होटल है। मात्र पच्चीस पैसे में एक बड़ा-सा दोसा। हम दोनों भाई खा रहे थे। वैसा स्वाद अब दोसे में क्यों नहीं आता!
वह पहला दोस्त! जो जिंदगी में आया था। क्या मैं भूल सकता हूं? चेहरा अब याद नहीं, मगर वह मेरा पहला दोस्त था। प्रथम कक्षा में आसपास बैठते हुए दोस्ती हो गई थी। जब स्कूल में शिक्षक ने पूछा- सबसे अच्छा, साफ-सफाई पसंद कौन है, तो मैंने तपाक से कहा था कि यह मेरा दोस्त है। यह समझ अल्पायु में कैसे आ गई थी! अपेक्षा थी कि कोई बात हो तो दोस्त मुझे आगे रखेगा और मैं उसको। घर के पास ही घर था उसका। मेरा काफी समय उसके घर के छज्जे, कोठे पर बीतता। उसके पास जाने कितने खिलौने थे। हम खेलते और अंधेरा होने से पहले मैं घर की ओर लौट पड़ता, क्योंकि घर के सामने बरगद का पेड़ था! जहां लोग कहते थे कि भूत रहते हैं! वह आनंद मिश्रित समय काल कभी भुलाया जा सकता है क्या?