मैंने अपने गांव के एक बुजुर्ग से पूछा कि लड़कियों की कम उम्र में शादी क्यों कर दी जाती है! उनका जवाब सुन कर मैं अवाक रह गया। उन्होंने कहा कि लड़की पराया धन होती है और इस तरह इन्हें कब तक अपने घर में रखें; लड़कियों के लिए पढ़ाई जरूरी नहीं है, उन्हें घर का काम अच्छे से आना चाहिए। ऐसे कई गांवों में लोगों के दिलो-दिमाग में अशिक्षा और अंधविश्वास घर किए हुए हैं, जहां लड़कियों का जीवन इसी में समेट दिया जाता है। एक बार मैं अपने चाचा के बेटे की बारात में गया तो वहां देखा कि कई बुजुर्ग एक व्यक्ति की पीठ थपथपा रहे हैं। उसका कारण कुछ और नहीं, बल्कि अधिक दहेज देना था। इसी तरह, एक बार हमारे गांव में एक ही परिवार की छह लड़कियों की शादी कर दी गई। उनमें सबसे छोटी लड़की की उम्र मात्र सात वर्ष थी।
कम उम्र की लड़कियां, जिनके पास शक्ति या परिपक्वता नहीं होती, अक्सर घरेलू हिंसा, यौन संबंधों की ज्यादतियों और सामाजिक बहिष्कार का शिकार होती हैं। कम उम्र में विवाह लड़कियों को शिक्षा या दूसरे तमाम अर्थपूर्ण कार्यों से वंचित करता है और यह उनकी निरंतर गरीबी का कारण बनता है। गर्भवती माताओं या नवजात शिशुओं की मृत्युदर में कोई खास कमी नहीं आने की वजह क्या है? इसके अलावा, लिंग भेद, बीमारी और गरीबी के भंवरजाल में फंसा देने की वजह के तौर पर भी बाल विवाह को देखा जा सकता है।
राजस्थान का एक लोकगीत है- ‘छोटी-सी उम्र में परणाई रे बाबोसा’। यह बाल विवाह से संबंधित है। हालांकि इस मामले में राजस्थान अकेला नहीं है। बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में स्थिति अलग नहीं है। बाल विवाह का संबंध आमतौर पर भारत के कुछ समाजों में प्रचलित सामाजिक रिवायतों से जोड़ा जाता है। कानून के मुताबिक विवाह योग्य आयु पुरुषों के लिए इक्कीस साल और महिलाओं के लिए अठारह वर्ष है। मैं राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे-से गांव में रहता हूं। इस राज्य में आज भी बाल विवाह का प्रचलन कायम है। कई बार वहां बच्चों की शादी थाली में बिठा कर यानी महज पांच साल से कम उम्र में भी कर दी जाती है। तमाम प्रयासों के बावजूद हमारे देश में बाल विवाह जैसी कुप्रथा का अंत नहीं हो पा रहा है। जबकि न केवल कानूनी तौर पर अपराध, बल्कि एक सामाजिक अभिशाप मान कर इसकी रोकथाम के लिए समाज के हरेक वर्ग को आगे आना चाहिए।
बाल विवाह का सबसे बड़ा कारण लिंगभेद और अशिक्षा है। जाहिर है, इसमें लड़कियों का कमतर या दोयम सामाजिक रुतबा और उन्हें आर्थिक बोझ समझना प्राथमिक कारण हैं। मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि क्या इसके पीछे आज भी केवल अज्ञान जिमेदार है या फिर धार्मिक-सामाजिक मान्यताएं और रीति-रिवाज इसका मुख्य कारण हैं। कारण चाहे कोई भी हो, इसका खमियाजा आखिरकार बच्चों को भुगतना पड़ता है। एक अन्य कारण गरीबी भी है। पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों के लोग अपनी लड़कियों की शादी कम उम्र में सिर्फ इसलिए कर देते हैं कि उनके ससुराल चले जाने से एक व्यक्ति के हिस्से की दो जून की रोटी बचेगी। वहीं कुछ लोग अंधविश्वास के चलते अपनी लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर देते हैं। कई ऐसे मामले भी सामने आते हैं, जिनमें बहुत कम उम्र में विवाह कर दिया जाता है और बाद में लड़का अपनी स्थितियां बदलने पर बचपन में किए गए विवाह को ठुकरा देता है।
विडंबना यह है कि लोगों को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता न रह कर अपनी कथित इज्जत की चिंता रहती है। छोटी उम्र में शादी करके लड़कियों का भविष्य अंधकार में डाल दिया जाता है। ऐसे तमाम मामले हैं जिनमें विवाह के बाद मां-बाप लड़की को शिक्षा से वंचित कर देते हैं और उस लड़की के लिए जीवन नरक के समान हो जाता है। एक अजीब धारणा बनाई गई है कि अगर लड़की ज्यादा पढ़ी-लिखी हुई तो वह मां-बाप की सेवा नहीं करेगी।
यों हमारे देश में बाल विवाह रोकने के लिए कानून मौजूद है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बाल विवाह एक गंभीर सामाजिक समस्या है। इसलिए इसका निदान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। आज युवा वर्ग को आगे आकर इसके विरुद्ध आवाज उठानी होगी और अपने परिवार और समाज के लोगों को इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए जागरूक करना होगा। अगर किसी का कोई भी साथी कम आयु में विवाह करता है, तो वह विवाह को अमान्य या निरस्त घोषित करवा सकता है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आधुनिकता के परदे तले अगर समाज में आज भी इस तरह की कुप्रथा पल रही है और हम उसके खिलाफ खड़े नहीं होते हैं तो इसकी मार कभी हमारे सिर पर भी पड़ेगी।
(नरेंद्र जांगिड़)