जमाना बाजारवाद और कारोबार में कलाकारी की गिरफ्त में है। सभी अपना-अपना हुनर बेचने की दौड़ में जोर-शोर से लगे हैं और प्रचार के लिए हर संचार माध्यम का पूरा दोहन हो रहा है। यह सबकी समझ में आ गया है कि कामयाबी के लिए लोगों तक असरदार तरीके से पहुंचना जरूरी है। इसके लिए बाकायदा व्यावसायिक कंपनियों और समाज में लोकप्रिय लोगों की सेवाएं ली जा रही हैं।
क्या डॉक्टर, क्या इंजीनियर, क्या शैक्षणिक संस्थान और अस्पताल। यहां तक कि सरकारें भी नामी-गिरामी लोगों से व्यावसायिक तरीके से अपनी बात लोगों तक पहुंचा रही हैं। सभी जानते हैं कि अगर कोई प्रतिष्ठित और लोकप्रिय व्यक्ति उनके उत्पाद या उनकी संस्था की तारीफ करेगा तो लोग उसे सच समझेंगे और उस पर विश्वास करेंगे। जबकि हकीकत यह है कि पैसे देकर उनसे कुछ भी कहवाया जा सकता है। यह दौर विज्ञापनों का है।
पिछले चार-पांच वर्षों से क्रिकेट के लोकप्रिय खिलाड़ियों की मांग अचानक बढ़ गई है। शुरुआत आइपीएल के नीलामी सत्र से होती है। पहले फ्रेंचाइजी के लिए टीमों की खरीदी होती है और फिर खुली नीलामी में करोड़ों रुपयों में खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त होती है और ये ही बड़े खिलाड़ी विभिन्न ब्रांडों, कंपनियों और उत्पादों की मार्केटिंग करते दिखते हैं। जाहिर है, इसके इन्हें करोड़ों रुपए चुकाए जाते होंगे। जब हर हुनरमंद अपनी हुनर बेच कर पैसे कमा रहा है तो फिर क्रिकेट खिलाड़ी भला क्यों पीछे रहते।
खेल की दुनिया के अलावा निजी आर्थिक हिसाब-किताब और जनसंपर्क के लिए इनके पास बाकायदा संगठित तरीके से लोग होते हैं। यह बात अलग है कि विदेशी खिलाड़ियों, खासकर फुटबॉल और रग्बी, बॉस्केटबॉल, बॉलिंग और कार रेसिंग में भाग लेने वाले खिलाड़ी इनकी तुलना में कई गुना ज्यादा कमाई करते हैं। पर यह भी सच है कि उन्हीं के साथ खेलने वाले अन्य क्रिकेट खिलाड़ियों को इतना पैसा नहीं मिल पाता। आइपीएल के बाद सुपर सितारा खिलाड़ियों की जिंदगी ही बदल गई है। जिसका जितना अच्छा हुनर, उसे उतना ही अधिक पैसा मिलता है।
हुनर की कीमत बाजार यानी मार्केट तय करता है। मार्केट के हिसाब से जिसका हुनर जितना बड़ा है उसे उतना ही ज्यादा पैसा मिलता है। यह पहले से होता आया है और आज भी हो रहा है। यह नियम डॉक्टरों, कलाकारों, वकीलों और खिलाड़ियों, सब पर लागू होता है। प्राण और अमरीश पुरी जैसे खलनायकों का पात्र निभाने वाले कलाकार हीरो से ज्यादा पारिश्रमिक पाते थे। यही बात कुछ कवियों, शायरों और खिलाड़ियों पर भी लागू होती है। हालांकि कई हास्य कवि या मजमेबाज कवि सम्मेलनों में स्थापित और स्तरीय कवियों से अधिक पारिश्रमिक लेते रहे हैं।
किसी को अधिक, किसी को कम, किसी को खुशी, किसी को गम। यह जिंदगी का अहम हिस्सा है। इसलिए इसे सहज भाव से स्वीकार किया जाना चाहिए और खिलाड़ी यह करते भी है। साथ-साथ सहजता से खेलते हैं और एक ही टीम के लिए खेलते हुए या अन्य टीमों में एक-दूसरे के खिलाफ खेलते हुए वे कभी यह महसूस नहीं करते कि वे सितारा या सुंदर सितारा और मार्केटिंग के हिसाब से सबसे महंगे खिलाड़ियों के साथ खेल रहे हैं। खिलाड़ी अपनी कीमत खुद तय नहीं कर सकते।
वे मन ही मन यह तय कर सकते हैं कि वे इतनी फीस लेंगे। फिर अगर उतनी न मिले या उससे कम मिले तो या तो उन्हें वह काम छोड़ना होगा या फिर समझौता करना होगा और कम कीमत पर काम करना होगा। जिंदगी का उसूल है कि या तो अपनी शर्तें जिंदगी पर थोपी जाए या फिर जिंदगी जो शर्तें आप पर थोपती है, उसे स्वीकार करें। और कोई रास्ता नहीं है।
हुनरमंद और स्तरीय खिलाड़ी पहले भी थे। लोग अक्सर सवाल करते हैं कि अगर वे आज होते या उस जमाने में ऐसी कारगर मार्केंटिंग होती तो क्या होता! जानकार मानेंगे कि वे भी इतने ही सफल होते, जितने आधुनिक सुपर सितारे हैं। फर्क यही है कि पहले कुछ मानक तय थे। आज सभी आपाधापी में लगे हैं और मानते हैं कि जो धन मिल रहा है, वह तो आंधी में आम की तरह है। क्या पता कल क्या हो! इसलिए बहती गंगा में सभी हाथ धो रहे हैं।
उन दिनों का ध्यान आना स्वाभाविक है जब पचास और साठ के दशक में एक टेस्ट खेलने के बहुत कम या महज कुछ सौ रुपए मिलते थे। तब न तो आज जैसा प्रचार-प्रसार था और न ही ताकतवर और मजबूत मार्केटिंग व्यवस्था। आज नया अवसर भी है और चुनौती भी। अचानक तकनीक के साथ-साथ इंटरनेट का भी विस्फोट हुआ है। कई ऐप, वेबसाइट, मोबाइल फोन और डिजिटल माध्यम एक-दूसरे से कड़ी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। विभिन्न कंपनियां और उत्पाद भी एक-दूसरे से आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील हैं।
सभी कंपनियां चाहती हैं कि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इसके लिए वे प्रभावी और असरदार व्यक्तित्व की सेवाएं लेती हैं। क्रिकेट खिलाड़ी मैदान पर खेल कर तो प्रभाव छोड़ते ही हैं, विज्ञापन करके भी प्रभाव छोड़ते हैं। हुनर के दम पर ही उन्हें तरक्की मिलती है। सभी अपना-अपना हुनर बेच कर प्रचार और पैसा दोनों कमा रहे हैं।