अभी थोड़े दिनों पहले मैंने अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे किए हैं। मुझे लगता है कि अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुरूप इन सालों में जो पाया, वह कम नहीं है। इसमें मेरे परिवार और समाज का विश्वास एक बड़ा उपहार है। ऐसे में मैंने सोचा कि इस नश्वर शरीर को दान कर दिया जाए उन विद्यार्थियों के लिए जो चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई कर रहे हैं। मेरा यह संकल्प कुछ लोगों को नागवार गुजरा। उनका सीधा सवाल था तो आपको मोक्ष कैसे मिलेगा? उनका कहना था कि मृत्यु के बाद विधि-विधान से दाह-संस्कार न हो तो मोक्ष मिलना असंभव है। कुछ लोगों की धारणा हो सकती है। लेकिन मुझे अब तक समझ में ही नहीं आया कि वास्तव में मोक्ष होता क्या है? क्या मोक्ष का कोई अस्तित्व है?

मुझे लगता है कि जीवन रहते मनुष्य की लालसा जीवन के साथ और जीवन के बाद के लिए भी बनी रहती है। औसतन सत्तर-अस्सी साल की जिंदगी वह सुख और सुविधाओं के बीच गुजारना चाहता है और मृत्यु के बाद भी उसके मन में मोक्ष की कामना होती है। यानी वह मरने के बाद भी सुख पाना चाहता है। मनुष्य की यह लालसा ही मोक्ष है, यह मुझे नहीं मालूम। मुझे तो यह भी नहीं पता कि मरने के बाद मोक्ष किसे मिलता है और कौन मोक्ष प्राप्त करता है! मेरे लिए यह सवाल हमेशा से अनुत्तरित रहा है। मोक्ष की यह कामना व्यक्ति अपने जीवनकाल में कर ले तो परलोक गमन के साथ ही यह सवाल भी खत्म हो जाएगा।

लेकिन मैं मोक्ष अपने जीवन में पाना चाहता हूं। मुझमें जो योग्यता है, उसका मैं समाज-हित में उपयोग करूं। मुझे मिली जवाबदेही को पूरा करूं और घर-समाज का विश्वास हासिल करूं, यही मेरे लिए मोक्ष है। आप अपनी जवाबदेही पूरी नहीं कर पा रहे हैं, लालसा में दूसरों का अहित कर रहे हैं और समाज तो क्या अपने परिवार का आप पर विश्वास नहीं है तो मोक्ष किस शर्त पर आपको मिलेगा? यह खुद ही समझ लेना चाहिए।

दरअसल, मोक्ष मेरे लिए एक अमूर्त शब्द है। मेरे खयाल से जिन्हें यह मिला या नहीं मिला, दोनों की दशा एक-सी होती है। मोक्ष शब्द की रचना और इसकी अवधारणा हमारे पुरखों ने इसलिए सामने रखी कि हम उन सभी कामों से बचे रहें जिनसे दूसरों का अहित होता है। यानी एक तरह से यह ‘डर’ का पर्याय है जो आपको गलत नहीं करने देता है। आज जब स्थितियां बदल रही हैं तब मोक्ष का अर्थ हमें समझ लेना चाहिए। आज से सौ-पचास साल पहले किसी-किसी के मृत शरीर को चंदन की लकड़ियों से भी जलाया जाता था। धीरे-धीरे हम वनों की कीमती लकड़ियों को उपयोग में लाने लगे। इसके बाद अब किसी तरह जुगाड़ से लकड़ियां इस कर्म के लिए उपयोग में लाई जाती हैं।

सोचता हूं कि आने वाले दो-तीन दशक के बाद जब मेरी मृत्यु होगी तब क्या मेरे शरीर को जलाने के लिए लकड़ियां सहजता से उपलब्ध होंगी! शायद नहीं! डिजिटल इंडिया के दौर में संस्कार के लिए संभवत: लकड़ियों की जगह पूरी तरह बिजली ले ले। हालांकि महानगरों में यह अभी ही धीरे-धीरे लोगों को पसंद आने लगा है। कई बार सोचता हूं कि करंट लग जाने से मृत्यु हो जाना या मृत शरीर को बिजली के उच्च-दाब वाले करंट से खाक कर देना प्रकारांतर से एक ही विधि है। फर्क सिर्फ जीवित और मृत देह का है। ऐसी स्थिति में मोक्ष की कल्पना का बहुत मतलब नहीं बनता।

मेरे खयाल से आने वाले दिनों की कल्पना कर ली जाए और मोक्ष का रास्ता तलाशना है तो मेडिकल कॉलेज में शरीर को दान कर दिया जाए। देहदान से बड़ा कोई दान नहीं होगा और यह देहदान सही अर्थों में अमूर्त शब्द मोक्ष को सार्थक करेगा। मोक्ष का रास्ता जल कर खाक हो जाने में नहीं, बल्कि जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी समाज के हित में काम आने से ही बनता है। मैंने अपने लिए अपनी तरह से मोक्ष का रास्ता चुन लिया है। मैं उन लोगों से भी अपेक्षा करता हूं कि मोक्ष का अर्थ तलाशें, क्योंकि यह अपने जीवन में किए गए सद्कार्यों का ही दूसरा नाम है।

महात्मा गांधी, कबीर और ऐसे अन्य लोग हमारी स्मृति में आज भी जीवंत हैं तो इसलिए कि उन्होंने मोक्ष के बारे में सोचा और ऐसे काम किए। हमारी दृष्टि और हमारा जीवन-दर्शन उनके बताए रास्ते पर चल कर संवरता है। ‘जात न पूछो साधो की’ की तर्ज पर कबीर जीवन-द्रष्टा हैं तो गांधीजी एक सामान्य आदमी के रूप में हमें अच्छे-बुरे की सीख देते हैं। अब हमारे लिए यह तय करने की बारी है कि मोक्ष का कौन-सा रास्ता चुनना चाहते हैं!   (मनोज कुमार)

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