बचपन से लेकर अब तक हम यही सुनते आए हैं कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं, दिल से भोले होते हैं, थोड़े नासमझ होते हैं वगैरह। विद्यालय से भी अक्सर ऐसी शिकायतें आती रहती हैं कि बच्चे अपना काम जिम्मेदारी से नहीं कर रहे हैं, खेलने में ज्यादा मन लगाते हैं आदि। मां-बाप, विद्यालय के शिक्षक और आसपास के लोग भी बस उसी दिन का इंतजार करते हैं कि कब बच्चे बड़े होंगे और जिम्मेदार बनेंगे। तो प्रश्न उठता है कि क्या सच में बच्चे जिम्मेदार नहीं होते हैं या फिर हम उन्हें जिम्मेदार होने का मौका नहीं देते हैं? शायद हमें बच्चों पर भरोसा नहीं है या फिर हमारी समझ और अनुभव हमें बच्चों पर भरोसा करने से रोकते हैं… आदि।
आमतौर पर रोजमर्रा की जिंदगी में अक्सर हम बच्चों से बातचीत करते रहते हैं। घर, परिवार और विद्यालय आदि में बच्चों से बातचीत करना कोई नई बात नहीं है। कभी अभिभावक के रूप में, कभी दादा-दादी के रूप में, कभी चाचा-ताऊ के रूप में और कभी शिक्षक के रूप में। इस बातचीत की विषय-वस्तु आमतौर पर एक-सी होती है। हम अपनी बातचीत में बच्चों को कुछ न कुछ करने के लिए कहते रहते हैं और कभी-कभी कुछ न करने की हिदायत भी देते हैं। आमतौर पर हमारी बातचीत का मूल उद्देश्य बच्चों को कुछ अच्छी बात सिखाना होता है।
अमेरिका के जाने-माने शिक्षाशास्त्री गैरथ बी मैथ्यूज ने लिखा है कि आमतौर पर छोटे बच्चे इस तरह के सवाल करते हैं, जिन्हें सुन कर बड़े-बुजुर्ग भी चकित रह जाते हैं। लेकिन इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है, क्योंकि बड़ों की तरह बच्चों में भी गंभीर सवाल करने की क्षमता होती है। इसलिए मां-बाप चाहें तो बच्चों से गंभीर विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं। यहां तक कि जिन्हें दार्शनिक विषय समझा जाता है, उन पर भी बच्चों से बातचीत संभव है।
रोजाना की जिंदगी में हमें ऐसे अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जो बच्चों की सोचने की गंभीरता दर्शाते हैं। लेकिन हम उन पर बच्चा समझ कर ध्यान नहीं देते हैं। उदाहरण के तौर पर एक प्रसंग बताता हूं। एक दिन विद्यालय में कार्टून सीरियलों पर चर्चा के दौरान कक्षा चार की एक बच्ची ने कहा- ‘पहले मैं टीवी पर कार्टून के सीरियल बहुत ज्यादा देखती थी, लेकिन अब नहीं देखती क्योंकि खलनायक कितना भी ताकतवर और खतरनाक हो, लेकिन हमेशा लड़ाई में हीरो जीतता है।’ हम देखते हैं कि कई बार गली, मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलते हैं तो उनके पास न तो वैसा मैदान होता है, न उतने खिलाड़ी, न उतनी जगह और न वैसे बल्ले और गेंद। फिर भी वे अपनी जरूरत के मुताबिक अपने नियम तुरंत बना लेते हैं और सभी उन नियमों का पालन भी करते हैं।
गैरथ के अनुसार, ‘आमतौर पर जिन समस्याओं से जुड़े प्रश्नों का उत्तर खोजना वयस्कों को मुश्किल लगता है। उन पर लोग बच्चों से बात नहीं करना चाहते हैं। इसके लिए बच्चों को अक्षम माना जाता है। अधिकतर लोग मानते हैं कि जो समस्याएं वयस्कों के लिए पेचीदा और दिक्कत पैदा करने वाली होती हैं, उन पर छोटे बच्चों से बातचीत संभव नहीं है।’ बच्चों के साथ काम करने वाले अनेक मनोविज्ञानी और शिक्षाशास्त्री भी साबित कर चुके हैं कि बच्चे किसी भी समस्या पर अपने तर्कों के माध्यम से विचार रखते हैं और उनके ये विचार बहुत ही रोचक और तर्कपूर्ण होते हैं।
हर मां-बाप का सपना होता है कि वह अपने बच्चे को सुरक्षित, शिक्षित और सुनहरा भविष्य दे और बच्चे के जन्म के साथ ही इस सपने की शुरुआत हो जाती है। लेकिन अपने इस सपने को पूरा करने के लिए मां-बाप अपनी उम्मीदों के अनुसार बच्चों को ढालना चाहते हैं और अपनी अपेक्षाएं उन पर थोपते हैं। फिर उन अपेक्षाओं के अनुसार ही बच्चों की जिंदगी ढल जाती है। जैसे कितनी देर तक खेलना है, कितनी देर तक टीवी देखना है और फिर कितनी देर तक पढ़ाई करनी है आदि।
लेकिन बच्चों के संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें अपनी अपेक्षाएं बच्चों पर नहीं थोपनी चाहिए। बल्कि बच्चों से जुड़े हर विषय पर उनसे बातचीत करके उनका नजरिया जानना चाहिए और फिर उसके अनुसार ही हमें तय करना चाहिए कि बच्चे क्या करना चाहते हैं, कब खेलना चाहते हैं, कब पढ़ना चाहते हैं, क्या पढ़ना चाहते हैं और पढ़-लिख कर क्या बनना चाहते हैं…! हम बच्चों के सुरक्षा वाले पहलू को ध्यान में रखते हुए उन्हें उत्प्रेरित कर सकते हैं, उन्हें उत्साहित कर सकते हैं, सहानुभूति, साधन और अवसर उपलब्ध करा सकते हैं, लेकिन हमें बच्चों पर अपने नियम, कायदे-कानून और नियंत्रण जबर्दस्ती न थोपने की सावधानी बरतनी चाहिए।