कई साल पहले एक बड़े भारतीय उद्योगपति को एक शहर में आना था। लोगों को संशय था कि इतने बड़े आदमी के स्वागत-सत्कार में कहीं कोई कमी न रह जाए। इसलिए हवाईअड्डे पर अगवानी की पूरी तैयारियां जोर-शोर से की गई थीं। लेकिन जब उद्योगपति आए तो उनके कंधे पर एक मामूली-सा थैला टंगा था और साथ कोई भी नहीं था। स्वागत करने वालों में उन्हें कोई पहचान नहीं सका।
कुछ देर इंतजार करने के बाद वे टैक्सी में बैठकर उसी स्थान पर चले गए, जहां उन्हें पहुंचना था। यह देखकर सब हैरान रह गए। ऐसे ही देश के दूसरे बड़े उद्योगपति के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत सादगी पसंद हैं। शाकाहारी हैं। सड़क किनारे बिकने वाले खाद्य पदार्थ पसंद करते हैं। चाहे जितने व्यस्त हों, हफ्ते में एक दिन परिवार के साथ बिताते हैं। उन्हें सजने-संवरने और ब्रांडेड कपड़े पहनने का कोई शौक नहीं है। बहुत विनम्र हैं।
इसी प्रकार की बातें अक्सर हम दुनिया भर के कई अमीरों और ताकतवरों के बारे में सुनते हैं कि कैसे महंगी कारों का काफिला होते हुए भी वे साइकिल पर या पैदल चलते हैं। उन्हें ब्रांड के मुकाबले पटरी बाजार से चीजें खरीदना पसंद है। अपने बगीचे की घास वे खुद काटते हैं। पौधों में पानी देते हैं। बाजार से समान खरीकर खुद लाते हैं। समाज सेवा के कार्यों में वे बहुत दिलचस्पी लेते हैं और अपनी आय का बड़ा हिस्सा इस पर खर्च करते हैं। उन्हें अध्यात्म भी बहुत लुभाता है।
सवाल है कि अब क्या सचमुच हमारे समाज में सादगी के मूल्य बचे हैं? आम आदमी का हाल क्या है? ब्रांड वाली चीजें मजबूत और देखने में अच्छी होती होंगी, लेकिन दशकों से तमाम व्यापारिक हितों के जरिए इन्हें हमारी आर्थिक स्थिति और समाजिक हैसियत से इस तरह से जोड़ दिया गया है कि अगर ब्रांड नहीं तो हम जीने के लायक नहीं! ब्रांड से दुनियाभर के अमीरों का मुनाफा जुड़ा है। अब हो सकता है कि ये व्यापारिक हित दुनिया और देश के उन अमीरों के ही हों, जिनकी सादगी के किस्से सुनकर हम चकित होते हैं। उन्हें आदर्श मानते हैं और सोचते हैं कि इतना पैसा, फिर भी न दिखावा, न घमंड।
अक्सर मिलने के लिए गांव से नाते-रिश्तेदार आते रहते हैं। उनकी जीवन शैली पर ब्रांड के जादू का खासा असर दीखता है। कपड़ों, जूतों, चश्मों- सब पर बड़े- बड़े ब्रांड के नाम छपे रहते हैं। वे कहते भी हैं कि तुम बड़े शहरों में जो कपड़े या जूते पहनते हो, जो बैग रखते हो, हम भी वैसा ही कर सकते हैं। हम भी वही पहन सकते हैं, वैसा ही खा सकते हैं, वैसे ही रह सकते हैं जैसे कि तुम लोग। फिर तुममें और हममें क्या फर्क है।
लेकिन इसके पीछे छिपी एक बात और है, जो पता सभी को होती है, कही नहीं जाती। वह यह कि इन दिनों किसी भी बड़े ब्रांड, चाहे वह जूतों का हो, कपड़ों का हो या खान-पान की चीजें, उन सबकी नकल बाजार में बड़े पैमाने पर उपलब्ध है। स्थानीय बाजार के अनुसार ये सस्ते दामों पर भी आसानी से मिल जाते हैं। इस तरह ब्रांड पहनने की इच्छा भी पूरी हो जाती है, पैसे भी कम खर्च होते हैं और जिन जैसा बनाना चाहते हैं, कपड़े पहनना चाहते हैं, रहना-सहना चाहते हैं, उस समूह में शामिल भी हो जाते हैं।
पिछले साल गांव में एक रिश्तेदार लड़की की शादी थी। वहां उसकी मेज पर तमाम प्रसाधन सामग्री रखी थी, जिन पर दुनिया भर के मशहूर ब्रांडों का नाम लिखा था। लेकिन उसी लड़की का कहना था कि ये सब नाम नकल किए गए थे। सब स्थानीय स्तर पर ही बनाए गए थे, हालांकि प्रयोग करने में वे बुरे नहीं थे।
दरअसल, इस तरह की नकल में होता यह है कि नाम और डिजाइन में मामूली अंतर कर दिए जाते हैं, ताकि कानून की पकड़ से दूर रहा जा सके। कई बार ऐसा लगता है कि अगर किसी सामग्री से कोई दुष्प्रभाव हो जाए तो किसकी जिम्मेदारी होगी। ऐसे में सफाई आती है कि उसने कहा था कि दुष्प्रभाव किसी भी चीज से हो सकता है… इन्हें ही क्यों बदनाम करते हैं… और फिर हम जैसे लोग कहां जाएं… हमें भी तो दुनिया को दिखाने के लिए कुछ करना पड़ता है।
यानी कि सादगी के मुकाबले दुनिया मशहूरी और नकल भी देखना चाहती है। नकली चीजों के इस्तेमाल में कोई परहेज नहीं, बस यह किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि वे नकली है, वरना जिस हैसियत को पाने चले हैं, उसका क्या होगा। यही वजह है कि लड़कों, युवकों के पास जो कपड़े या जूते नजर आते हैं, उन पर बड़े-बड़े ब्रांड के नाम सजे होते हैं।
जिन लोगों की सादगी हमें बहुत प्रभावित करती है कई बार लगता है कि कहीं वह कोई रणनीति तो नहीं, क्योंकि साधन-संपन्न अपनी सादगी के किस्से लिखवा रहा है, उन पर इतरा न भी रहा हो तो भी लोग उन्हें बहुत चाव से पढ़ रहे हैं, दूसरों को सुना रहे हैं। दूसरी तरफ मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग, गरीब के सिर पर ब्रांड किसी जिन्न की तरह सवार हैं। जेब में चूंकि उतने पैसे नहीं, तो नकल ही सही।