टेलीविजन, कंप्यूटर और सबसे ज्यादा ढोने में उपयुक्त मोबाइल के आविष्कार और इंटरनेट की उपलब्धता ने जिंदगी को बहुत तेज और आसान बना दिया है। इस अर्थ में कि घर बैठे बिना अधिक माथापच्ची किए आदमी दुनिया भर की चीजों के बारे में जानकारी एकत्रित कर पाता है। वह खुश हो जाता है कि उसे तो दुनिया भर का ज्ञान है। यही भूल हो जाती है कि जो वह देख रहा है, कितना सही और कितना गलत है। वैसे कुछ घटनाओं के खूब प्रसारित होने की स्थिति में उसके तथ्यों की जांच की कोशिश की जाती है, लेकिन पल-पल घटने वाली नई घटनाओं की संख्या इतनी ज्यादा है कि हर खबर की प्रामाणिकता पता करना आसान नहीं है।
दरअसल, विभिन्न समाचार-पत्र और चैनलों के अलावा इतने सोशल वेबसाइट और माध्यम बन गए हैं कि उनमें बहुत सारे लोग बिना किसी मौलिकता की बातें लिख करके दावे करते हैं कि वे सही हैं। ऐसे में एक साधारण इंसान नहीं समझ नहीं पाता कि क्या सही, क्या गलत है। नतीजतन, बहुत सारी गलत चीजों को भी सही समझ कर व्यक्ति अपने अंदर धारणा बना लेता है। दिक्कत तब आती है, जब कोई इस तथाकथित सही जानकारी को गलत साबित कर देता है। लेकिन ऐसी परिस्थितियां कम ही पैदा होती हैं। हालांकि यह बात भी इतनी आसान नहीं, क्योंकि किसी घटना या प्रसारित खबर की सच्चाई क्या है, यह शायद बहुत कम लोग ही जान पाते हैं। गलत समाचार तो पता नहीं, कितनों ने पढ़ ली और उसी हिसाब से धारणा बना लिया होता है। जाति, धर्म संबंधित जानबूझ कर फैलाई गई गलत खबरों का जाल इसी की एक कड़ी है या फिर यह एक ऐसा माध्यम, जो बिना जहर की गोली दिए ही गलत समाचार के माध्यम से लोगों के दिमाग को पंगु करने का प्रयास होता है। माइक्रोसॉफ्ट के सर्वेक्षण के मुताबिक करीब पैंतालीस फीसद समाचार राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए जानबूझ कर गलत बनाए जाते हैं, ताकि जनता को भ्रमित कर राजनीतिक लाभ प्राप्त किए जा सकें।
यों एक तरफ सूचना क्रांति का लाभ यह है कि इसे सबको उपलब्ध और सबके लिए आसान बना दिया गया है। लेकिन इस रूप में हम क्या ग्रहण कर रहे हैं, इसकी पड़ताल उससे भी ज्यादा जरूरी है। फिर इसके लिए क्या मानक हो? अगर समाचार के सच होने की प्रामाणिकता घोषित भी हो तो उसके सच साबित करने का क्या तरीका होगा? फिर भी समाचार झूठा हो तो? गूगल की ओर से खबरों की असलियत पहचान के लिए कुछ तरीका साझा किया गया है। जैसे कोई समाचार या चित्र पहले भी प्रसारित हुआ हो, तो उसकी जानकारी मिल जाएगी। लेकिन अगर कोई गलत चीज पहली बार ही प्रकाशित हुई हो तब? उसकी क्या पहचान होगी? फिर पल-पल विभिन्न वेबसाइटों के जरिए इतने समाचार आंखों से गुजरते हैं कि सबको कैसे चेक करें? ऐसे अनेक सवाल हैं, जिनका सहज तरीका ढूंढ़ा जाना जरूरी है। संभव है कि आने वाले दिनों में आदमी और मशीन में ज्यादा फर्क न हो कि मशीन स्विच से चलता है और आदमी के अंदर इतना कुछ गलत भर दिया जाए कि वह जरा से प्रयास से विस्फोटक होने के लिए तैयार हो जाए!
सवाल है कि आदमी को इतने सारे सोशल मीडिया के मंचों से जुड़ने की जरूरत ही क्या है? क्यों ढेर सारी घटनाओं की उसे जानकारी या तात्कालिक टिप्पणियां चाहिए? जिस क्षेत्र में वह हो, उससे जुड़ी चीजों का उसे पता हो, यह जरूरी है। इस क्रम में व्यक्ति इत?ने फालतू कामों से जुड़ जाता है कि न तो खुद के लिए सही ढंग से समय निकाल पाता है और न अपने परिवार के लिए। पति-पत्नी अधिकांश समय मोबाइल से चिपके रहते हैं, इसीलिए एक-दूसरे के प्रति उचित जिम्मेदारी निभाने का समय ही नहीं बचता। या फिर इस सही-गलत मोबाइली खबरों में फंस कर आदमी इतना थक जाता है कि जरूरी काम भी नहीं कर पाता।
आज इसके शिकार बालिग स्त्री-पुरुष ही नहीं, बढ़ते बच्चे भी होने लगे हैं। सभी ज्यादातर फालतू चीजों में व्यस्त होते हैं, इसीलिए किसी के पास एक-दूसरे को समझने के लिए समय नहीं होता। व्यक्ति अपनी आयु का एक बड़ा भाग गलत-सही समाचार और दुनिया भर की चीजें देखने में बर्बाद कर देता है। बाकी जो बचता है न्यूनतम नित्य क्रिया करने और किसी तरह जिंदा रहने जितना कमाने में। तभी अधिकतर आदमी विकास नहीं कर पाता। उसके अंदर दुनिया भर की जानकारियों के नाम पर इतना कचरा भरा रहता है कि वह अपने भीतर स्वनिर्मित चीजें भर ही नहीं पाता या इसकी उसे जरूरत ही नहीं लगती। रात बारह या दो बजे तक आदमी कुछ न कुछ करता दिखता है, लेकिन अधिकतर व्यक्ति के हिस्से में नतीजा शून्य। कैसे बदलेगी यह प्रवृत्ति? एक और जरूरी बात कि आदमी दुनिया भर के लोगों को ही पढ़ता रहेगा तो खुद को कब पढ़ेगा? जीवन की अंतिम संध्या पर? तब पढ़ कर फायदा ही क्या कि कुछ बेहतर करने के लिए जब शरीर में क्षमता ही नहीं होगी। इसीलिए सोचना तो आज ही पड़ेगा कि कैसे हम इंसान इस सूचना तंत्र के जाल में फंसें नहीं और अगर फंस जाए तो इसे निकलने का क्या रास्ता हो!
