मेंटेनेंस को लेकर किए गए केस अक्सर विवादों में फंस जाते हैं। पति पक्ष की ओर से कुछ भी तरकीब लगाकर पत्नी को मेंटेनेंस नहीं देने की कोशिश की जाती है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक केस में सुनवाई करते हुए इस संबंध में बड़ा फैसला सुनाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली और भरण-पोषण पर कार्यवाही “पूरी तरह से स्वतंत्र” है और “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी जुड़ी हुई नहीं है” – और पति को अपनी पत्नी को मेंटेनेंस देना जारी रखना चाहिए, भले ही वो वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने से इनकार कर दे।
आसान शब्दों में, इसका मतलब ये है कि पत्नी अपने पति से पैसे पाने की हकदार होगी, भले ही वो अदालत के इस आदेश कि वो ससुराल वापस लौट जाए की अवहेलना करते हुए अलग रहे, जिसमें वे विवाहित जोड़े के रूप में रहते थे।
वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर कानून क्या है?
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा-9 में कहा गया है कि अगर पत्नी या पति “बिना किसी उचित कारण के, एक-दूसरे अलग हो गए हैं”, तो पीड़ित पक्ष “वैवाहिक अधिकारों की बहाली” के लिए डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पिटिशन दायर कर सकता है, और कोर्ट तब आवेदन को स्वीकार करते हुए डिक्री जारी कर सकता है।
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इस धारा का उद्देश्य एक विवाहित पुरुष और महिला के साथ रहने की पारंपरिक पारिवारिक इकाई को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना है। हालांकि, इस कानून पर दशकों से विवाद चल रहा है। साल 1983 में, आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने इस कानून को खारिज कर दिया और सवाल किया कि क्या इस तरह के प्रावधान का आधुनिक समाज में कोई स्थान है। लेकिन अगले साल सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज कर दिया।
गुजरात राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के छात्रों के एक समूह द्वारा इस संबंध में दायर प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती 2019 से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है।
वर्तमान मामले में मेंटेनेंस और वैवाहिक अधिकारों के सवाल क्या थे?
पत्नी ने अपनी शादी के एक साल बाद 2015 में वैवाहिक घर छोड़ दिया। जुलाई 2018 में, पति ने HMA की धारा-9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए मुकदमा दायर किया। अगस्त 2019 में, वैवाहिक अधिकारों का मामला अभी भी लंबित होने के साथ, पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 125 के तहत अपने पति से मेंटेनेस के रूप में मासिक भत्ता मांगने के लिए मुकदमा दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि उसकी उपेक्षा की जा रही है, और वो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
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वैवाहिक अधिकारों के मामले में, पत्नी ने दावा किया कि उसके पति और उसके परिवार द्वारा उसके साथ बुरा व्यवहार किया गया, और उसे दी गई मानसिक पीड़ा के कई उदाहरण सूचीबद्ध किए। हालांकि, जब वो अपने दावों के आगे सबूत देने में विफल रही, तो फैमिली कोर्ट ने अप्रैल 2022 में वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक आदेश पारित किया और उसे ससुराल लौटने का निर्देश दिया।
हालांकि, पत्नी ने डिक्री का पालन नहीं किया, लेकिन पति ने अभी तक सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में उपलब्ध प्रावधानों के तहत जुर्माना या संपत्ति की कुर्की के माध्यम से इसके प्रवर्तन के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया है। इस बीच, फरवरी 2022 में, पत्नी ने पति को प्रति माह 10,000 रुपये मेंटेनेंस के रूप में भुगतान करने का निर्देश देते हुए सफलतापूर्वक आदेश प्राप्त कर लिया। पति ने इस आदेश को झारखंड हाईकोर्ट के सामने चुनौती दी।
अगस्त 2023 में, झारखंड HC ने मेंटेनेंस के आदेश को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि फैमिली कोर्ट द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री जारी करने के बाद भी पत्नी ने वापस लौटने से इनकार कर दिया था। साथ ही, धारा 125(4) CrPC के तहत, यदि कोई पत्नी “बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है” तो वो मेंटेनेंस की हकदार नहीं होगी।
SC ने उसके पक्ष में फैसला क्यों दिया?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक महिला ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी। SC ने झारखंड HC के फैसले को खारिज कर दिया और पति को मंथली मेंटेनेंस का भुगतान जारी रखने का आदेश दिया। पिछले कई हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खान और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने पाया कि कोर्ट, जहां भी संभव हो, पत्नी को मेंटेनेंस देने के पक्ष में फैसला सुनाते हैं।
इसने 2017 के त्रिपुरा हाई कोर्ट के एक मामले का हवाला दिया जिसमें भरण-पोषण दिया गया था, भले ही पत्नी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री का पालन नहीं किया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि “धारा 125(4) सीआरपीसी द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को काफी हद तक कम कर दिया गया है, यदि वस्तुतः नकारा नहीं गया है”, सुप्रीम कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने कहा कि केवल वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री पारित करना और पत्नी द्वारा डिक्री का पालन करने से इनकार करना कोर्ट द्वारा उसे मेंटेनेंस प्राप्त करने से अयोग्य ठहराने के लिए काफी नहीं है।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायालयों को यह तय करने के लिए प्रत्येक मामले के तथ्यों पर विचार करना चाहिए कि पत्नी मेंटेनेंस पाने की हकदार है या नहीं। वर्तमान मामले में, झारखंड हाई कोर्ट ने पृथक वैवाहिक अधिकार मामले में निष्कर्षों को “अनुचित महत्व” दिया था, और कुछ महत्वपूर्ण कारकों को “अनदेखा” किया था, जो पत्नी को “अपने वैवाहिक घर में वापस न लौटने का उचित कारण” दे सकते थे।
‘वैवाहिक अधिकारों’ पर कानूनी बहस कहां स्टैंड करती है?
1983 में, एपी हाई कोर्ट ने पाया कि एचएमए की धारा-9 का उद्देश्य “न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से अनिच्छुक पक्ष को डिक्री-धारक के साथ उस व्यक्ति की सहमति और स्वतंत्र इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करना” था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को पलटते हुए फैसला सुनाया कि ये प्रावधान “विवाह के टूटने की रोकथाम में सहायता के रूप में एक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करता है” (सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा, 1984)।
गुजरात राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा दायर याचिका में कहा गया कि धारा-9 भेदभाव के विरुद्ध मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है क्योंकि ये “महिला को संपत्ति के रूप में पितृसत्तात्मक अवधारणा पर आधारित है, (और) लैंगिक रूढ़िवादिता को मजबूत करती है”।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह प्रावधान निजता के अधिकार का भी उल्लंघन करता है, जिसमें “अकेले रहने का अधिकार” भी शामिल है। सितंबर 2022 में, केंद्र ने 2019 की जनहित याचिका के जवाब में एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया कि यह प्रावधान लैंगिक रूप से तटस्थ है, और जोड़ों को “वैवाहिक जीवन की सामान्य नोंक-झोंक से उत्पन्न होने वाले मतभेदों” को हल करने के लिए “अपेक्षाकृत नरम” कानूनी उपाय देता है। इस मामले में अभी तक ठोस सुनवाई शुरू नहीं हुई है।