जब कोई पत्नी वैवाहिक विवाद (Martial Dispute) के मामले में भरण-पोषण (Maintenance) के लिए कार्यवाही शुरू करती है या जब कोर्ट भरण-पोषण प्रदान करती है, तो इसे जबरन वसूली नहीं माना जा सकता है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने हाल ही में एक महिला और उसके माता-पिता के पक्ष में फैसला सुनाया, जो महिला के पति के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे थे।
जबरन वसूली और अन्य अपराधों का लगाया था आरोप
न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने नवंबर 2023 में मैंगलोर ईस्ट पुलिस स्टेशन में उसके पति द्वारा दायर एक जवाबी शिकायत में पत्नी के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिसमें उसने अपनी पत्नी और ससुराल वालों पर धोखाधड़ी, जबरन वसूली और अन्य अपराधों का आरोप लगाया था।
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक मामले की समीक्षा करते हुए, हाई कोर्ट ने दारा लक्ष्मी नारायण बनाम तेलंगाना राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि पर्सनल ग्रजेज या प्रतिशोध से प्रेरित आपराधिक शिकायतों को रद्द कर दिया जाना चाहिए।
इसी सिद्धांत को लागू करते हुए, न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना ने फैसला सुनाया कि पति के जबरन वसूली के आरोपों में दम नहीं है। न्यायाधीश ने इस बात पर भी जोर दिया कि अदालत द्वारा अनिवार्य किए गए भरण-पोषण भुगतान को जबरन वसूली नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वे वैध कार्यवाही से उत्पन्न होते हैं।
क्या है पूरा मामला?
2007 में विवाहित इस जोड़े का एक बेटा और एक बेटी है। परेशानी 2016 में शुरू हुई जब पति को एक अजनबी से एक मैसेज मिला, जिसमें दावा किया गया था कि उसकी पत्नी किसी दूसरे आदमी के साथ रिश्ते में है। जब पति ने अपनी पत्नी से इस बारे में पूछा, तो उसने स्वीकार किया कि वो व्यक्ति उसका प्रेमी था, लेकिन उसने उससे सभी संबंध तोड़ने का वादा किया। हालांकि, उस आश्वासन के बावजूद, दंपति के बीच संबंध खराब हो गए।
सितंबर 2020 तक, महिला ने अपने पति को छोड़ दिया और अपने दो बच्चों के साथ बेंगलुरु में अपने माता-पिता के साथ रहने लगी। मध्यस्थता के प्रयासों के बावजूद, सुलह संभव नहीं थी। अक्टूबर 2023 में, महिला ने तलाक के लिए अर्जी दी और सीआरपीसी की धारा-125 के तहत भरण-पोषण और घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा मांगी। उसने क्रूरता और आपराधिक धमकी का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई।
वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की
जवाब में, पति ने अपनी पत्नी पर धोखाधड़ी, जबरन वसूली और आपराधिक विश्वासघात का आरोप लगाते हुए जवाबी शिकायत दर्ज कराई। उसने दावा किया कि उसने उसे धोखा दिया है, झूठे बहाने से करीब 1 करोड़ रुपये ऐंठ लिए हैं और मध्यस्थता सत्रों के दौरान उसे बदनाम किया है। उसने अपने बच्चों की कस्टडी भी मांगी और वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की।
पति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी के क्रूरता के दावों में कोई दम नहीं है। हालांकि, पत्नी ने तर्क दिया कि मानसिक क्रूरता भी धारा 498ए के तहत क्रूरता के रूप में योग्य है, उसने दावा किया कि उसके पति के आरोप निराधार हैं। अब इस मामले में कोर्ट ने महिला के पक्ष में फैसला सुनाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी अहम फैसला सुनाया
मालूम हो कि हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे एक मामले में अहम फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली और भरण-पोषण पर कार्यवाही “पूरी तरह से स्वतंत्र” है और “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी जुड़ी हुई नहीं है” – और पति को अपनी पत्नी को मेंटेनेंस देना जारी रखना चाहिए, भले ही वो वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री का पालन करने से इनकार कर दे।
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आसान शब्दों में, इसका मतलब ये है कि पत्नी अपने पति से पैसे पाने की हकदार होगी, भले ही वो अदालत के इस आदेश कि वो ससुराल वापस लौट जाए की अवहेलना करते हुए अलग रहे, जिसमें वे विवाहित जोड़े के रूप में रहते थे।
वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर कानून क्या है?
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा-9 में कहा गया है कि अगर पत्नी या पति “बिना किसी उचित कारण के, एक-दूसरे अलग हो गए हैं”, तो पीड़ित पक्ष “वैवाहिक अधिकारों की बहाली” के लिए डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में पिटिशन दायर कर सकता है, और कोर्ट तब आवेदन को स्वीकार करते हुए डिक्री जारी कर सकता है। इस धारा का उद्देश्य एक विवाहित पुरुष और महिला के साथ रहने की पारंपरिक पारिवारिक इकाई को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना है। हालांकि, इस कानून पर दशकों से विवाद चल रहा है।
वर्तमान मामले में मेंटेनेंस और वैवाहिक अधिकारों के सवाल क्या थे?
पत्नी ने अपनी शादी के एक साल बाद 2015 में वैवाहिक घर छोड़ दिया। जुलाई 2018 में, पति ने HMA की धारा-9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए मुकदमा दायर किया। अगस्त 2019 में, वैवाहिक अधिकारों का मामला अभी भी लंबित होने के साथ, पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 125 के तहत अपने पति से मेंटेनेस के रूप में मासिक भत्ता मांगने के लिए मुकदमा दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि उसकी उपेक्षा की जा रही है, और वो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
वैवाहिक अधिकारों के मामले में, पत्नी ने दावा किया कि उसके पति और उसके परिवार द्वारा उसके साथ बुरा व्यवहार किया गया, और उसे दी गई मानसिक पीड़ा के कई उदाहरण सूचीबद्ध किए। हालांकि, जब वो अपने दावों के आगे सबूत देने में विफल रही, तो फैमिली कोर्ट ने अप्रैल 2022 में वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक आदेश पारित किया और उसे ससुराल लौटने का निर्देश दिया।
हालांकि, पत्नी ने डिक्री का पालन नहीं किया, लेकिन पति ने अभी तक सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में उपलब्ध प्रावधानों के तहत जुर्माना या संपत्ति की कुर्की के माध्यम से इसके प्रवर्तन के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया है। इस बीच, फरवरी 2022 में, पत्नी ने पति को प्रति माह 10,000 रुपये मेंटेनेंस के रूप में भुगतान करने का निर्देश देते हुए सफलतापूर्वक आदेश प्राप्त कर लिया। पति ने इस आदेश को झारखंड हाईकोर्ट के सामने चुनौती दी।
अगस्त 2023 में, झारखंड HC ने मेंटेनेंस के आदेश को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि फैमिली कोर्ट द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए डिक्री जारी करने के बाद भी पत्नी ने वापस लौटने से इनकार कर दिया था। साथ ही, धारा 125(4) CrPC के तहत, यदि कोई पत्नी “बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है” तो वो मेंटेनेंस की हकदार नहीं होगी।
SC ने उसके पक्ष में फैसला क्यों दिया?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक महिला ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी। SC ने झारखंड HC के फैसले को खारिज कर दिया और पति को मंथली मेंटेनेंस का भुगतान जारी रखने का आदेश दिया। पिछले कई हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खान और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने पाया कि कोर्ट, जहां भी संभव हो, पत्नी को मेंटेनेंस देने के पक्ष में फैसला सुनाते हैं।
इसने 2017 के त्रिपुरा हाई कोर्ट के एक मामले का हवाला दिया जिसमें भरण-पोषण दिया गया था, भले ही पत्नी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री का पालन नहीं किया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि “धारा 125(4) सीआरपीसी द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को काफी हद तक कम कर दिया गया है, यदि वस्तुतः नकारा नहीं गया है”, सुप्रीम कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने कहा कि केवल वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री पारित करना और पत्नी द्वारा डिक्री का पालन करने से इनकार करना कोर्ट द्वारा उसे मेंटेनेंस प्राप्त करने से अयोग्य ठहराने के लिए काफी नहीं है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायालयों को यह तय करने के लिए प्रत्येक मामले के तथ्यों पर विचार करना चाहिए कि पत्नी मेंटेनेंस पाने की हकदार है या नहीं। वर्तमान मामले में, झारखंड हाई कोर्ट ने पृथक वैवाहिक अधिकार मामले में निष्कर्षों को “अनुचित महत्व” दिया था, और कुछ महत्वपूर्ण कारकों को “अनदेखा” किया था, जो पत्नी को “अपने वैवाहिक घर में वापस न लौटने का उचित कारण” दे सकते थे।