एक बच्चा जो पंजाब में साल 1901 में पैदा हुआ, जिसके नाम में उसके गांव का नाम जुड़ा और बड़ा होते हुए उसने जलियांवाला बाग जैसा हत्याकांड देखा। फिर वह इस बड़े घाव को दिल में बैठाकर अमेरिका चला गया लेकिन लौटा तो आजादी की लड़ाई भी लड़ी। इस युवक का नाम प्रताप सिंह कैरों था, जो आगे चलकर पंजाब का ताकतवर सीएम बना और पंजाब को नए ढंग से बसाने का श्रेय भी मिला।
प्रताप सिंह कैरों का जन्म 1 अक्टूबर 1901 को अमृतसर जिले के कैरों गांव में हुआ। सिख-जाट परिवार से ताल्लुक रखने वाले प्रताप सिंह कैरों ने अमेरिका में जाकर दो-दो विषयों में मास्टर डिग्री हासिल की। पढ़ाई के बाद 1929 में लौटकर वह भारत आये और एक अखबार निकालना शुरू किया। थोड़े दिनों बाद वह राजनीति में आए तो अखबार बंद हो गया। देश की आजादी में भाग लिया और जेल भी गए।
शुरुआत में कुछ दिन प्रताप सिंह कैरों शिरोमणी अकाली दल में फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके बाद चुनाव जीते, विधायक से मंत्री बने फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। इसके बाद, अपने कामों को लेकर जवाहर लाल नेहरु के करीबी हो गए। प्रताप सिंह कैरों को ही पंजाब में हरित क्रांति का अगुआ माना जाता था। इसके अलावा देश विभाजन के बाद पंजाब को बसाने का श्रेय भी कैरों को दिया जाता है।
प्रताप सिंह, जनवरी 1956 से जून 1964 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। पंजाब को समय के साथ कृषि, रोजगार व अन्य स्थितियों में उन्नत बनाने के पीछे प्रताप सिंह कैरों का ही हाथ था। हालांकि, जवाहर लाल नेहरु की मृत्यु के बाद उनकी भी सियासी गाड़ी बेपटरी हो गई। इसके बाद कई तरह के भ्रष्टाचार के आरोप भी कैरों पर लगे, जिसके बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
भ्रष्टाचार के आरोप वाले मामलों में जांच शुरू हुई तो कमेटी ने उन पर लगाए गए सभी आरोप बेबुनियाद पाए और क्लीन चिट दे दी। इसके बाद प्रताप सिंह कैरों ने तत्कालीन सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी, लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी हत्या कर दी गई। वारदात के दिन प्रताप सिंह कैरों 6 फरवरी 1965 को फिएट कार से दिल्ली से अमृतसर की ओर लौट रहे थे।
इसी यात्रा के दौरान जब उनकी कार सोनीपत के रसोई गांव पहुंची तो कुछ हमलावरों नें गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। इस हत्याकांड में उनके निजी सहायक के अलावा दो आईएएस अधिकारियों की भी मौत हो गई थी। इस हत्या के बाद सैंकड़ों लोगों से पूछताछ की गई और कैरों के बेटों ने राजनीतिक हत्या की आशंका जताई। हत्या मामले में पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की और मई 1966 से मामले की सुनवाई शुरू हुई।
इस चार्जशीट में सुचा सिंह, बलदेव सिंह, नाहर सिंह, सुख लाल और दया सिंह को आरोपी बनाया गया था। कहा गया कि सुचा सिंह ने अपने पिता और दोस्त को सजा दिलाने वाले कैरों की हत्या बदला लेने की नियत से की थी। साल 1969 में दया सिंह को छोड़कर बाकी को सजा-ए-मौत की सजा हुई। इसके बाद फरार दया सिंह को अप्रैल 1972 में पकड़ लिया गया और बाकी चारों को अक्टूबर 1972 में इन्हें फांसी दे दी गई। इसके बाद 1978 में दया सिंह को भी फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन कई दया याचिकाओं के बाद 1991 में उसे उम्रकैद में बदल दिया गया था।