विकेश कुमार बडोला
मानव सृष्टि का सबसे ज्ञानी जीव है, ऐसा अब तक कहा जाता रहा है। लेकिन अब अगर लगने लगा है कि मानव से ज्यादा ज्ञान और समझ शायद पशु-पक्षियों को है, तो इसलिए कि मानव ने अपने ज्ञान का स्वभाव छोड़ दिया। समय के साथ स्वभाव बिगड़ने के कारण आज मानव का ज्ञान मानवीय कम, मशीनी ज्यादा हो गया। जबकि पशु-पक्षियों ने अपने स्वाभाविक और प्राकृतिक ज्ञान में कमी नहीं आने दी। अभी तक उनकी जीवनचर्या में परिवर्तन नहीं आया। उनकी नियत गतिविधियां समय में बदलाव के कारण पुनर्नियत नहीं हुर्इं। उनके जीवन, चाल-चलन और चरित्र में अब तक अगर कोई फर्क आया होगा, तो वह भी मानव के कारण ही।
मानव ने विज्ञान के बलबूते इतने उपकरण तैयार किए हैं कि उनका वैज्ञानिक प्रभाव (या दुष्प्रभाव) पृथ्वी सहित सभी ग्रहों पर पड़ता है। इससे वन-वनस्पतियां और जीव-जंतु भी प्रभावित होते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों के कारण मानव का जो कुछ भी विकास हुआ हो, पर वनसंपदा और वन्य-जीवों पर पड़ रहे विज्ञान के दुष्प्रभावों ने विकास की अवधारणा को उलझा दिया है। विकास संतुलित और समावेशी होना चाहिए। इस युग में नए लगने वाले किसी वैज्ञानिक आविष्कार के फलस्वरूप इतना भी नहीं विचलित होना चाहिए कि उसके उचित प्रयोग का संकल्प ही भूल जाएं।
संतुलित विकास का प्रमुख आधार जनसंख्या पर नियंत्रण है। जनसंख्या को अगर राजनीतिक कारणों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता, तो उसका विकेंद्रीकरण होना चाहिए। महानगरों और बड़े शहरों पर बढ़ता जनसंख्या भार अनेक समस्याओं का मूल कारण है। लोगों को उनके मूल निवास स्थान पर रोजगार और उद्योग से जोड़ा जाना चाहिए। शहरों में लोगों की मूल आवश्यकताओं के समांतर विलासिता आधारित आवश्यकताएं भी तीव्रता से बढ़ी हैं। ध्यान दिया जाए तो इन आवश्यकताओं के आधार पर प्रचलित भौतिक वस्तुओं की मनुष्य को कोई खास जरूरत नहीं है। मनुष्य का अत्यधिक भौतिक विचरण और लालची व्यवहार समाज को अंदर से खोखला कर चुका है। दुर्भाग्य है कि शासन-व्यवस्था ने भी इस ओर से अपनी आंखें मूंद रखी हैं। अगर सरकारी नीतियां जनसंख्या के विकेंद्रीकरण नियम पर संचालित होंगी, तो निश्चित रूप से देश में सुशासन का व्यवहार शुद्ध लोकतांत्रिक रूप से महसूस हो सकेगा।
देश के दूरस्थ क्षेत्र और वहां के कम से कम लोग जब मतदान के रूप में लोकतांत्रिक और संसदीय प्रतिनिधित्व करते आए हैं, तो वे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों के लिए हमेशा उपेक्षित क्यों पड़े रहें! जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है, उस अनुपात में मूलभूत आवश्यकताओं का वितरण नहीं हो पा रहा। अगर शासकीय स्तर पर देश के दूरस्थ क्षेत्रों के लिए संसाधनों का आबंटन होता भी है, तो वे वास्तविक हकदारों तक पहुंच नहीं पाते।
अंतरराष्ट्रीय सामाजिक संधियों का पालन करने की विवशता ने धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के अनावश्यक खटकर्म पर देश की बहुत ज्यादा शासकीय ऊर्जा और शक्ति बर्बाद करवाई है। सीमांत राष्ट्रों में समांतर शासन कर व्याप्त आतंकवाद ने भी समय-समय पर भारत के लिए अनेक चुनौतियां खड़ी की हैं। इनकी आड़ में देश के अंदर अवैध जनप्रवास भी बढ़ा है। इसके निराकरण के लिए अब तक कोई ठोस नीति नहीं है। यही वजह है कि देश में कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। विकास और विज्ञान के साथ जोश से चलने के लिए जनसंख्या पर भी नियंत्रण करना होगा, तभी विज्ञान आधारित विकास की सार्थकता सिद्ध होगी।
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