राजकुमार रजक
मानव अपनी जरूरतों को पूरा करने में सदा ही व्यस्त रहा है और अपनी इसी कवायद में वह प्रकृति के अनेक विस्तृत और यथार्थ रूप को सामने लाता गया। इस क्रम में एक अहम बात यह हुई कि मनुष्य लगातार शक्तिवान भी बनता गया। लेकिन इस बीच सभ्यता के चक्रव्यूह में वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के भंवर जाल में बार-बार अटकता भी रहा है। इस मूल्यांकन में जहां वह अपनी शक्ति का विस्तार करता हुआ आगे चल रहा है, वहीं उसके आंतरिक यथार्थ की सिकुड़न भी बढ़ती गई है। सच यह है कि महत्त्वाकांक्षा के जाल में फंसा मनुष्य अपनी ही परिधि से बाहर निकल नहीं पा रहा है। उसने चाहे-अनचाहे आपसी सुख-दुख की सीमाओं से खुद को अलग कर रखा है।
मौजूदा समय के इस ‘अल्ट्रा स्पीड’, यानी जरूरत से ज्यादा गति वाले जीवन में भले ही भौतिक रूप से मनुष्य एक दूसरे से दूर है, लेकिन सूचना क्रांति के इस युग में आभासी रूप से लोग कई बार खुद को बहुत करीब पाते हैं। हालांकि आभासी करीबी के बावजूद मानव और मानव के बीच पहले से कहीं ज्यादा आपसी और सामाजिक संबंधों में रिक्त स्थान बन गया है। इस खाली स्थान को बाजार अपनी जरूरतों के मद्देनजर बढ़ाता रहता है। बाजार के मकड़जाल में फंसा मनुष्य खुद अपनी पहचान खोता जा रहा है। अधिक से अधिक सुख बटोरने की होड़ में व्यक्ति से व्यक्ति अदृश्य होता जा रहा है, व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज अदृश्य होता जा रहा है। मानवीय संबंधों में घुटन, टूटन और सामाजिक संबंधों में दरार इसका हासिल है। व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में खालीपन से पैदा हुए अवसाद के कारण मानव का आंतरिक यथार्थ प्रकाश से दूर और अंधेरे की गिरफ्त में है। वहां कैद मनुष्य आजादी की रोशनी से भय खाता हुआ बार-बार अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की अंधेरी गुफा में अकेला भटक रहा है। इन गुफाओं में किसी विश्वास के लिए कोई जगह नहीं है और न ही इनमें एक-दूसरे से स्वर संगति बनाने की जगह है।
हम लगातार सलमे-सितारे से जड़े चकाचौंध कर देने वाले बाजार के मायावी संजाल में खुद को खोते जा रहे हैं। एक अनजान प्रतिस्पर्धा और ‘स्टेटस’ के लिए लालायित मनुष्य तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धता के बावजूद ‘कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढ़े वन माहि’ की तरह भटक रहा है। हम जीवन के यथार्थ दृश्य से कहीं ज्यादा खुद की रची हुई आभासी दुनिया में अपना पंख पसार रहे हैं। साथ ही प्रकाश से डरते हुए आभासी और सामाजिक अर्थ नैतिक ‘डेडलॉक’, यानी संवादहीनता में लगातार चक्कर काट रहे हैं। अपने लिए जानलेवा अजीब बदबूदार कुंठा और संत्रास की दमघोंटू काल कोठरी का ईजाद कर रहे हैं, जिसकी अंतिम स्थिति है मात्र संवादहीनता। इस स्थिति से निजात पाने और इसके द्वंद्व से निपटने के लिए हमें अपने परिवार और पड़ोसी के बीच में संवाद कायम करने की आवश्यकता है। अपने अंदर के खालीपन से पैदा हुआ संबंधों में परस्पर बढ़ते अविश्वास की खाई को पाटने के लिए संवाद की जरूरत है। संवाद ही वह पुल है जो दो परस्पर विरोधी ध्रुवों को मिला सकता है। इसके जरिए ही हमारे परिवार और पड़ोसी के बीच न्यायपूर्ण स्थान और वातावरण का निर्माण हो सकता है।
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