रविशंकर रवि

असम में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड के संगबिजीत गुट के हाल ही में आदिवासियों पर हमले और इसके बाद की हिंसा में करीब अस्सी लोग मारे गए और हजारों लोग बेघर हो गए। अब केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर उग्रवाद के खिलाफ अभियान चलाने को तैयार हुई हैं। अगर सचमुच ऐसा होता है तो राज्य में उग्रवाद के सफाए के लिए यह एक निर्णायक मोड़ होगा। संगबिजीत गुट की ताजा हिंसा कोई नई घटना नहीं है। इसके पहले भी वह कई बार जनसंहारों को अंजाम दे चुका है। हर हिंसा के बाद राज्य सरकार उग्रवादियों के खिलाफ सख्त अभियान चलाने का दावा करती है। कुछ दिनों तक दिखावे के लिए अभियान चलता भी है। लेकिन फिर सब कुछ पहले की तरह हो जाता है। दरअसल, असम में उग्रवाद विरोधी अभियानों को अब तक राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिए से देखा गया है। इसलिए उग्रवादी कुछ दिनों की चुप्पी के बाद फिर अचानक सक्रिय हो जाते हैं। राज्य सरकार की इन्हीं नीतियों की वजह से पूरी तरह कमजोर हो चुका अल्फा फिर से ताकतवर हो जाता है। जबकि उग्रवाद के खिलाफ सतत अभियान और कारगर नीति की जरूरत है। अगर मुख्यमंत्री तरुण गोगोई केंद्र के साथ मिल कर उग्रवाद का सफाया करना चाहते हैं तो अच्छी बात है।

असम में उग्रवादी संगठन जिस तरह से घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, उसमें उग्रवाद से निपटने की नीति और रणनीति में व्यापक बदलाव की जरूरत है। एक तरफ उग्रवादी संगठन संघर्ष विराम की घोषणा करके केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता आरंभ करते हैं, लेकिन उसके किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले ही उसी संगठन का एक नया गुट हिंसा फैलाना आरंभ कर देता है। जबकि संघर्ष विराम के बाद केंद्र सरकार हरेक वार्ता समर्थक कैडर को प्रतिमाह तीन हजार रुपए देती है। दूसरी ओर, संघर्ष विराम करने वाले उग्रवादी संगठन के कैडर हथियार अपने साथ रखते हैं। उन हथियारों का उपयोग धन-उगाही और अपहरण के लिए किया जाता है। राज्य के पहाड़ी जिलों में अब तक कई उग्रवादी समूहों के साथ समझौता हो चुका है, फिर भी वहां नया उग्रवादी संगठन सक्रिय है। एनडीएफबी के दो गुट केंद्र सरकार से वार्ता कर रहे हैं तो तीसरा गुट हिंसा फैला रहा है। अल्फा का एक बड़ा गुट शांति वार्ता कर रहा तो दूसरा गुट हिंसा के रास्ते पर है।

आखिर ऐसी शांति वार्ताओं और समझौते का क्या महत्त्व है, जब उसी उग्रवादी संगठन से टूटा समूह हिंसा फैलाने पर आमादा हो? वार्ता के लिए राजी समूहों के पास अवैध हथियार क्यों रहे? शांति समझौते के बाद उग्रवादियों के खिलाफ तमाम मामले माफ कर दिए जाते हैं। ऐसे में कोई उग्रवादी समूह निरीह लोगों की हत्या के बाद शांति समझौते के बहाने शान से जी सकता है। इसलिए वार्ता तभी होनी चाहिए, जब पूरा समूह शांति वार्ता के लिए तैयार हो। किसी एक गुट के साथ समझौता करने का कोई लाभ नहीं होता है। हिंसा फैलाने वाले समूहों को एक समय सीमा दी जानी चाहिए। उसके बाद भी वे वार्ता के लिए तैयार नहीं हों तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। शांति समझौता उस समूह के साथ होनी चाहिए, जो समूह समझौते के बाद पूरी तरह से मुख्यधारा में शामिल होने को तैयार हो। अगर उसका कोई गुट अलग होता है तो उसे मुख्यधारा में लाने की जिम्मेदारी उस मूल संगठन के मुखिया की होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर मिजो नेशनल फ्रंट ने समझौते के बाद सारे हथियार सरकार को सौंप दिए थे और हर कैडर मुख्यधारा में शामिल हो गया था। असम में जो कुछ हो रहा है, वह शांति समझौते के नाम पर महज एक प्रहसन है।

 

 

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