अशोक उपाध्याय

टीवी का पत्रकार, खासतौर पर एंकर ‘लोकतंत्र का रक्षक’ बन कर सामने खड़ा होता है! वह सभी से सवाल करता है, उसे शर्मिंदा करते हुए कहता है कि देश जानना चाहता है, आप जवाब दें, जवाब दें। अगर आपको उससे कोई सवाल पूछना हो या शिकायत करनी हो तो टीवी ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन को पत्र लिखें। अब उससे सवाल कौन पूछे! हम सब जानते हैं कि देश के कानून के मुताबिक शराब-सिगरेट के विज्ञापन टीवी पर नहीं दिखाए जा सकते। टीवी पर एक विज्ञापन आता है, जिसमें एक रेस्टोरेंट में फिल्म अभिनेता अजय देवगन एक लड़की को छेड़ने वाले गुंडे से मारपीट करते हैं। बाद में वे उसी रेस्टोरेंट में सबके लिए ‘एसीपी’ लाने का आॅडर करते हैं। फिर एक सवाल आता है- ‘एसीपी यानी!’ अजय देवगन जवाब देते हैं- ‘सबके लिए एसीपी मयूजिक सीडी!’ बहुत भोले आदमी को भी समझ आता है कि यह ‘एरिस्टोक्रेट प्रीमियम विस्की’ का विज्ञापन है।

हम मान लेते हैं कि टीवी पर नैतिकता और कानून का पालन की बात करने वाले एंकर, उसके संपादक और टीवी के मालिक को यह म्युजिक सीडी का ही विज्ञापन लगता होगा। इसी प्रकार एक विज्ञापन ‘बॉडी वार्मर’ (गर्म कपड़ों) का आता है, जिसमें सगाई का दृश्य है। नायक अपनी नायिका की अंगुली में अंगूठी पहनाने की कोशिश करता है, जिसमें उसका हाथ बार-बार फिसल जाता है। एक सवाल पीछे से आता है कि लगता है इसके पास नहीं है! शराब का गिलास हाथ में लिए मेज पर बैठा आदमी विश्वास से उसे देख कर कहता है- ‘लगता है, इसके पास नहीं है!’ फिर एक लड़की शरारत भरे अंदाज में कहती है- ‘लगता है जीजू के पास नहीं है!’ इस पर नायक खीझ कर पूछता है- ‘क्या नहीं है मेरे पास?’ तब एक छोटी लड़की बॉडी वार्मर कपड़ों का सेट लेकर आती है और कुछ ऐसा बोलती है जो आमतौर पर वर्ज्य है। बेशक यह विज्ञापन गर्म कपड़ों का ही है, लेकिन जिस तरह से कहा और दिखलाया गया है, वह पुरानी मुकरी शैली है- ‘का सखी चोर, ना सखी सैयां!’ लेकिन इस विज्ञापन में जो इंगित है, वह यहां लिखा भी नहीं जा सकता। सभी उसे समझते हैं, लेकिन इसकी नैतिकता से संबंधित सवाल टीवी में संपादक और मालिक को समझ नहीं आते।

कानून के मुताबिक टीवी पर दवाइयों के विज्ञापन नहीं दिखाए जा सकते। पहले च्यवनप्राश, आयोडेक्स जैसे दर्द निवारकों के विज्ञापन आते थे जिनके लिए डॉक्टर की पर्ची की जरूरत नहीं होती थी। अब न्यूरोबिन फोर्ट गोलियों का सीधे-सीधे विज्ञापन आता है। इस दवा का ऐसे विज्ञापन प्रसारित करना कितना उचित है? क्या यह चिकित्सा विज्ञान की आचार संहिता और कानून का उल्लंघन नहीं है? लेकिन टीवी वाले तो देश और लोकतंत्र के ‘रक्षक’ हैं। उनसे सवाल कौन करे? गर्भ निरोधकों के विज्ञापन पहले संतति निरोध के लिए आते थे। अब वे आनंद के लिए एक वस्तु के रूप में आ रहे हैं, जिसे ब्रांड के रूप में स्थापित किया जा रहा है। टीवी चैनलों को अपनी आय के सामने नैतिकता के ये प्रश्न नहीं दिखते।

मालिक जो चाहेगा, वही टीवी पर दिखाया जाएगा। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन या कोई और परिषद इस मामले में कुछ कर पाएगी, इसकी उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए। सरकार की कोई एजेंसी अपनी ओर से कुछ नहीं करेगी। अगर उसे कुछ करना होता तो वह अब तक कर चुकी होती। यह मुक्त बाजार की व्यवस्था है। यहां सब बाजार ही तय करेगा। अब बाजार सरकार भी बना रहा है तो अच्छा यह रहेगा कि सरकार इस क्षेत्र को भी विधिवत नियम-कानून से मुक्त कर दे। एक दर्शक का दिल इस तरह से तो नहीं दुखेगा!

 

 

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