जावेद अनीस
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक पखवाड़े के दौरान सार्वजनिक रूप से दो बार भारत में बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता का जिक्र किया। पहली बार उन्होंने भारत में ही यहां के लोगों को कहा था कि उन्हें सांप्रदायिकता या अन्य आधार पर बांटने के प्रयासों के खिलाफ सतर्क होना होगा और भारत तभी सफल रहेगा, जब वह धार्मिक या अन्य किसी आधार पर नहीं बंटेगा। दूसरी बार अमेरिका में नेशनल प्रेयर-ब्रेकफास्ट कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भरपूर सौंदर्य लिए इस अद्भुत देश में जबर्दस्त विविधता है, लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान यहां हर धर्म के मानने वालों को दूसरे धर्मों की असहिष्णुता का शिकार बनना पड़ा है। ओबामा ने यहां तक कह दिया कि ‘भारत में धार्मिक असहिष्णुता जिस स्तर पर पहुंच चुकी है, उसे देख कर महात्मा गांधी स्तब्ध हो गए होते।’
इसी कड़ी में अमेरिका के एक अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी अपने संपादकीय में आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों,चर्च पर हो रहे हमले आदि पर सवाल उठया। मशहूर चैनल ‘अल-जजीरा’ ने भी इन्हीं मुद्दों पर एक परिचर्चा का आयोजन किया। इसके अलावा, ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जारी वैश्विक रिपोर्ट 2015 में भी मुजफ्फरनगर दंगों में हिंसा भड़काने के आरोपी भाजपा के नेता संजीव बालियान जैसे नेताओं को संसदीय चुनावों में प्रत्याशी बनाए जाने और केंद्र सरकार में मंत्री भी नियुक्त करने पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि ‘इससे अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना को और बल मिला है’। रिपोर्ट में जून 2014 में उग्र हिंदू संगठनों द्वारा पुणे के मोहसिन शेख की दुखद हत्या का भी जिक्र किया गया है।
दिलचस्प यह है कि 2002 में देश की सत्ता की बागडोर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राजग के हाथों में थी और उस समय भी नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर इस तरह की चिंता के केंद्र में थे। फिर मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने का एक सिलसिला-सा चल पड़ा है। संघ परिवार के नेताओं से लेकर केंद्र सरकार और भाजपाशासित राज्यों के मंत्री तक हिंदू राष्ट्रवाद का राग अलापते हुए भड़काऊ भाषण दे रहे हैं, लव जिहाद के नाम पर राजनीति, घर वापसी और हिंदू महिलाओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने जैसे शिगूफे छोड़े जा रहे हैं। महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे की शान में सरेआम कसीदे पढ़े गए। यही नहीं, इस साल गणतंत्र दिवस के दौरान केंद्र सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में भारतीय संविधान की उद्देशिका में जुड़े ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को मूल के बहाने गायब कर दिया गया। जबकि भारत जैसे बहुलतावादी और विविधता से भरे देश में धर्मनिरपेक्षता सबको साथ लेने और जोड़ने का काम करती है। यह भारतीय संविधान की आत्मा है।
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत में धार्मिक असहिष्णुता संबंधी चिंता जताने के बाद केंद्र सरकार को बयान देना पड़ा कि ‘भारत में सहिष्णुता का बहुत लंबा इतिहास है और अपवाद स्वरूप घटनाएं भारत के इस इतिहास को नहीं बदल सकती हैं।’ अल्पसंख्यक समूहों और उनकी इबादतगाहों पर हो रहे हमलों के संबंध में भी यह आश्वासन दिया गया कि जो लोग ऐसी गतिविधि में शामिल होंगे, उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी। लेकिन सिर्फ आश्वासन या बयान देने से काम नहीं चलेगा। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को चाहिए कि वे नफरत भरे बयानों और भाजपा-आरएसएस से जुड़े संगठनों के कारनामों पर लगाम कसें। आखिर सरकार में आने के लिए हिंदू राष्ट्र का नहीं ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया गया था। हमारी एकता ही हमारी अखंडता की बुनियाद है। सबको साथ लेकर चलने में ही देश की तरक्की संभव है। प्रधानमंत्री देश के नेता हैं, इसलिए यह जिम्मेदारी उन्हीं को निभानी है।
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