संदीप नाईक

हमारा देश महान है और देशवासी दिलचस्प। इंदौर के बाण गंगा क्षेत्र में एक बस्ती है गणेशधाम। कहने को तंग बस्ती, झुग्गी या ‘स्लम’ है, लेकिन अगर आप घूमेंगे तो पाएंगे कि वहां ‘आलीशान’ मकान भी बने हुए हैं, पक्के और शानदार। लगभग हर चौथे घर में लेथ मशीन या कोई न कोई उद्योग-धंधा चल रहा है। हर घर में दुपहिया और सातवें घर में चारपहिया। लेकिन जब हम लोग महिला सुरक्षा के संदर्भ में सुविधाओं और माहौल का अध्ययन कर रहे थे तो पता चला कि शौचालय की सुविधा नहीं है। घर के लोग बस्ती के एक कोने में बने शौचालय में जाते हैं जो सार्वजनिक है और इतना गंदा कि अगर आप सौ फीट दूर से भी निकल रहे हों तो दुर्गंध से परेशान हो जाएं। किशोर से लेकर जवान लड़कियां तक यहां आती हैं अपनी मां या दादी के साथ। जवाब में युवा वर्ग से लेकर बूढ़े तक छेड़खानी करने के लिए पूरी बेशर्मी से वहां अड्डा जमा कर खड़े रहते हैं। यह समझना मुश्किल है कि लोग अपने संसाधनों से घर पक्का बनवा लेते हैं, पर इस इस उम्मीद में रहते हैं कि शौचालय सरकार बनवा कर दे!

आखिर इस मानसिकता में जीने की क्या वजह हो सकती है! ऐसे ही हालात शिवशक्ति नगर के हैं या ग्वालियर में कंबल केंद्र या जबलपुर में चौधरी मुहल्ले या भोपाल में भदभदा स्थित बस्ती के भी। कब तक इनके हालात स्थायी रूप से सुधारने की बात नहीं होगी या इन्हें राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जाता रहेगा? हर बस्ती में लगभग यही समस्या है। सीवेज, निकास की समस्या, पीने के पानी की लाइन में नाली का पानी, संडास का अभाव, बिजली के खंभे हैं, मगर उन पर लट्टू नहीं! लगा भी दिए तो मनचले जवान निशाना लगा कर फोड़ देंगे। छेड़छाड़ एक स्थायी बीमारी, तमाम तरह के नशीले पदार्थ आसानी से उपलब्ध, पुलिस की मिलीभगत से सारी गतिविधियों का सफल संचालन आम है।

सिर्फ इंदौर नहीं, प्रदेश के चार बड़े शहरों में मैं यह प्रवृत्ति देख रहा हूं। बस्ती वाले इंसान नहीं, सिर्फ वोट बैंक। एनजीओ के लिए फायदे का मसला, नगर निगम के लिए कचरे का ढेर, प्रशासन के लिए गैरकानूनी अड्डे और आम लोगों के लिए वह वर्ग जो सिर्फ मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाने का काम करता है। पर्याप्त रूप से कमा कर खाने वाले ये लोग भी इस देश में रहने का हुनर जान गए हैं। कई घरों में सोफा, रंगीन टीवी, फ्रिज, एक से ज्यादा मोबाइल जैसी चीजें। जो एक जमाने में विलास की वस्तु थी, अब इन घरों में आसानी से सबके पास उपलब्ध है।

मैंने भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर- चारों शहरों में इस तरह की बस्तियों को पिछले आठ महीनों में बहुत बारीकी से देखा, परखा और समझा है। गरीबी और भुखमरी से आगे बढ़ते हुए वहां रहने वाले परिवारों के ज्यादातर बच्चे पढ़ रहे हैं, युवा किसी न किसी रोजगार में लगे हैं और थोड़े पैसे कमा रहे हैं, महिलाएं घर में काम करके बाहर भी कुछ काम करके पैसा जमा कर रही हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इन परिवारों में कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब पर भी खर्च हो जाता है। इनके बीच जागरूकता की जरूरत अब भी है, लेकिन अब इन्हें वोट बैंक की तरह देखा जाना बंद होना चाहिए। देश के बहुत सारे एनजीओ यानी स्वयंसेवी संगठन इनका ‘उद्धार’ करने के नाम पर अब तक पैसा उगाहते रहे हैं!

 

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