विकेश कुमार बडोला

अब तक पाकिस्तान के नाम से ही कड़वाहट से भर जाने वाला भारत हाल में अचानक उसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण हो गया। वहां एक विद्यालय पर हुए आतंकी हमले में मृत विद्यार्थियों के प्रति भारतीय संवेदनाएं सभी जगह दिखीं, यह कहते हुए कि ‘इसे पाकिस्तान की घटना के रूप में मत लीजिए। बच्चे तो सबके समान ही हैं। उनके प्रति हुई ऐसी क्रूरता को भारत-पाक से जोड़ कर मत देखिए।’

मैंने सोचा कि यह तो कुछ-कुछ वैसा ही भावना-प्रदर्शन है, जैसा गुटखा-बीड़ी और मदिरा-चाय का सेवन करने वाले कहते हैं कि ये सब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, लेकिन इनके उत्पादन, विज्ञापन, प्रचार-प्रसार के लिए उनमें रोजगार और अधिकार के आधार पर गलाकाट प्रतियोगिता भी साथ-साथ होती है। जो देश आतंक के तीन विकृत ध्रुवों में बंटा हुआ हो, वहां के किस ध्रुव पर विश्वास किया जा सकता है। वहां की सरकार, सेना और इन दोनों के कुत्सित गठन से तैयार आतंकवाद कोई पृथक सत्ता नहीं है। बल्कि वहां सरकार, सेना और आतंकवादियों को अलग करके देखने का शायद कोई सामाजिक आधार नहीं बचा है। ये तीनों चाहे-अनचाहे आतंकी घटनाओं में परस्पर सहयोग या अनदेखी करते रहे हैं। भारत-विरोधी पाकिस्तानी सैन्य आक्रमण हो या आतंकी हमला, इनमें वहां की सरकार की भूमिका छिपी नहीं है।

जब पूरे विश्व में अधिकतर परिवारों के लोग भी आपस में प्रेमपूर्वक नहीं रह रहे हों, तब दो कट्टर दुश्मन देशों का एक आतंकी घटना के बहाने गाया जाने वाला आतंक-विरोधी राग किसी को कितना और कब तक सुहाएगा, यह तो समय ही बताएगा। ईर्ष्या, द्वेष और मतभेद मनुष्य के साथ होते ही हैं। मतभेदों का विस्तार बहुत दूर तक हो गया है। जब मनुष्य जीवन में मतभेदों की पैठ रिश्तों-संबंधों तक में हो गई हो, तो धर्म के आधार पर विभाजित दो देशों के बीच पनपे मतभेदों को किसी कीमत पर पाटना क्या इतना आसान है? अनेक विषयों से संबंधित मतभेद समाप्त किए जा सकते हैं, पर धर्म संबंधी मतभेद शायद कभी खत्म नहीं हो सकते। जब तक पूरे संसार का धर्म एक नहीं होगा, तब तक धर्म प्रणालियों के मतभेदों के कारण उभरने वाला घरेलू और विदेशी आतंक तो दुनिया को झेलना ही होगा।

बेशक आतंक की वजहें आज आधुनिक हो गई हों, लेकिन कारणों की मूल प्रेरणा धर्म से ही उपजती है। आतंक का वास्तविक स्वभाव, प्रवृत्ति वह नहीं है, जो हमें हथियारों से लैस आंतकवादियों के रूप में नजर आता है। बल्कि इसकी सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति का निर्धारण तो संसार की लोकतांत्रिक छतों के नीचे के चार खंभे करते हैं। वे चार खंभे आमतौर पर लोकतांत्रिक देशों में कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और प्रेस के रूप में विद्यमान हैं। ये चार स्तंभ बौद्धिक चालाकी और चंचलता से भरे हुए हैं। बाकी देशों में तो नहीं, लेकिन इस देश में इनकी भूमिका अब तक अपने सबसे सांस्कारिक धर्म के विरुद्ध कुतर्क और विवाद परोसने की ही रही है। ऐसी स्थिति में दुर्घटनाएं ही हो सकती हैं।

बच्चों के मरने पर आतंक के प्रतिरोध में बोलने और आंसू बहाने वालों को सबसे पहले अपने भीतर झांकने की जरूरत है। अगर वे भीतर हृदय में भी बच्चों के कल्याण के प्रति चिंतित हैं या होंगे, तो निश्चित रूप से उनके राग में मैं भी शामिल हूं और रहूंगा। और अगर वे छल से और अपने घर-परिवार या राज-परिवार की राजनीति से दुष्प्रेरित होकर ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, तब भविष्य का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है!

 

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