सुरेश उपाध्याय

विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति ने लोगों के जीवन को सुलभ और आरामदायक बनाया है तो उन्नत चिकित्सा प्रणाली ने बाल और मातृ मृत्यु-दर को कम किया है। इसके अलावा, एक सामान्य व्यक्ति की औसत उम्र में इजाफा भी हुआ है। कई मोर्चों पर विकास के प्रयासों के परिणामस्वरूप सकल घरेलू उत्पाद में प्रभावी वृद्धि हुई है, देश खाद्यान उत्पादन में आत्मनिर्भर हुआ है। लेकिन सच यह है कि इन सकारात्मक नतीजों का लाभ जरूरतमंद तबकों या पूरी आबादी को नहीं मिल पाया है। आज भी कुपोषण और रक्त की कमी और इसके चलते होने वाली बीमारियों से आबादी का बड़ा हिस्सा प्रभावित है। सामुदायिक वितरण की व्यवस्था को सुधार कर तात्कालिक रूप से इसमें सुधार किया जा सकता है, किया भी जाना चाहिए।

दूसरी ओर, विकास के तथाकथित दावों के बावजूद देश में अमीर-गरीब की खाई बढ़ी है, आबादी की अस्सी फीसद जनता महज बीस रुपए या उससे भी कम पर जीवनयापन के लिए अभिशप्त है तो सिर्फ सौ लोग देश की उनचास फीसद संपति पर कब्जा जमाए हुए हैं। क्षेत्रीय असमानता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है और जल, जंगल, जमीन, नदी, पर्वत, खदान आदि प्राकृतिक संसाधनों के बेतरतीब दोहन ने पर्यावरण और प्रकृति के लिए भी गंभीर खतरे पैदा कर दिए हैं। इन हालात के मद्देनजर जल, जंगल, जमीन के संरक्षण, नदियों के पुनर्जीवन और सघन वनीकरण के साथ दीर्घावधि योजना के तहत माल्थस के सिद्धांत के अनुरूप जनसंख्या नियंत्रण की प्रभावी नीति की भी आवश्यकता है।

इससे पहले परिवार नियोजन की योजनाएं लागू की गई थीं और उसके तहत चलाए जाने वाले जागरूकता अभियान में ‘हम दो हमारे दो’ का नारा दिया गया था। नतीजतन, परिवार नियोजन के संदर्भ में निषेध सामग्री का उपयोग 1970 में जहां तेरह फीसद था, वहीं 2009 में यह अड़तालीस फीसद यानी तीन गुना से ज्यादा हो गया। इसका स्वाभाविक असर जनसंख्या वृद्धि पर पड़ा और 1966 के मुकाबले 2012 में जनसंख्या वृद्धि दर आधी से भी कम रह गई। इसके बावजूद भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो अभी भी जनसंख्या वृद्धि दर अधिक है और इस पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इस संदर्भ में आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों ने परिवार नियोजन अभियान को गहरे आघात दिए और तब राजनीतिकों-समाजशास्त्रियों ने इस विषय में चुप्पी साधना ही बेहतर मान लिया। खौफ इतना था कि परिवार नियोजन विभाग और कार्यक्रम का नाम बदल कर परिवार कल्याण विभाग और कार्यक्रम कर दिया गया और जागरूकता के अभियान भी शिथिल हो गए।

आज ज्यादातर परिवारों को दो बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा, चिकित्सा आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करने में मुश्किल हो रही है। लेकिन इस यथार्थ के बरक्स कुछ नासमझ लोग धर्म की रक्षा के नाम पर चार-पांच या फिर दस बच्चे पैदा करने का मुखर आह्वान कर रहे हैं। विडंबना है कि इस तरह की हरकतों पर हमारे रहनुमा खामोश हैं। आज परिवार नियोजन के लिए सघन और प्रभावी जन-जागृति अभियान की जरूरत है और समय की मांग के अनुरूप ‘हम दो हमारे दो’ के स्थान पर ‘हम दो हमारा एक’ का नारा अपनाने की आवश्यकता है। यह नारा परिवार के साथ समाज और राष्ट्र की एकता के लिए भी बेहद प्रभावी, उपयोगी और हितकारी सिद्ध हो सकता है।

 

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