मिथलेश शरण चौबे

जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2014: भाषाएं अपने साहित्य और बोलचाल की विपुलता से ही अपना व्यापक परिसर बनाती हैं। फिर भी अपनी भाषाओं को लेकर सत्ताओं का गैरजिम्मेवार और उदासीन रवैया दूसरी भाषाओं के आक्रांताओं को मजबूत अवसर ही प्रदान करता है। अधिकतर सूचना माध्यम भी हिंदी की दुहाई देकर अंगरेजीपरस्ती के कुशल प्रस्तोता बन कर मुग्ध हैं। कुछ तो अंगरेजी के पैरवीकार की तरह पेश आ रहे हैं। अस्सी करोड़ लोगों की अभिव्यक्ति के माध्यम का कुशल निर्वाह करने वाली हिंदी के ऊपर दो लाख लोगों द्वारा प्रयुक्त अंगरेजी को वरीयता देने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है। हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धियों पर गुमान तो जरूर करते हैं, लेकिन उन्हें सहेजने का कर्म अन्य पर थोपते हैं। वहीं दूसरी संस्कृतियों के प्रति भी हमारा अविचारित आकर्षण है। हम अंगरेजी बोलने-लिखने या सोचने पर गौरवान्वित होते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि दूसरी भाषा में अभिव्यक्ति के समय हम अनायास ही उसकी भाषिक शक्ति से अनुशासित होने लगते हैं, उसकी सांस्कृतिक संरचना में शामिल हो जाते हैं। मातृभाषा में सीखना और व्यक्त करना सबसे सुगम और रचनात्मक होने के बारे में तमाम विज्ञों के मतैक्य के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर दूसरी भाषा का अतिरिक्त आग्रह चौंकाता है।

बाजार के आक्रमण ने हमें जो उपभोक्तावादी मनुष्य बना दिया, उससे हम अपनी भाषा को भी सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही मान बैठे। भाषा के साथ मनुष्य का जो गहरा संबंध होना चाहिए, वह नहीं रहा। जाहिर है, ऐसे सूचना समय में इस काम के लिए अंगरेजी ज्यादा मुफीद लगनी थी, क्योंकि वह बाजार के अनुकूल है। नतीजतन, हिंदी हमें अपर्याप्त लगने लगी और हमने उसके इस्तेमाल में अंगरेजी का अपनी अल्प समझ से समावेश कर एक खिचड़ी रूप ईजाद कर लिया। विज्ञापन, राजनीति और पत्रकारिता ने अपने श्रेष्ठ होने के प्रदर्शन, सूचना के प्रलोभन और दूसरे के विरोध में तर्क के सुविधानुकूल प्रयोगों से भाषा का एक अस्वाभाविक-सा रूप निर्मित किया। महात्मा गांधी और राममनोहर लोहिया को ‘एमजी’ और ‘आरएमएल’ में तब्दील करने वाली बेमानी संक्षिप्तियों के साथ ही इंटरनेट के हिंग्लिश प्रयोगों ने भाषा का एक और ही विखंडित पाठ ईजाद कर डाला। विडंबना यह है कि हिंदी से ही जीविकोपार्जन करने वाले तक ऐसा करने में पीछे नहीं रहे। बल्कि वे तो कला और यथार्थ के नवाचार और निपट भाष्य की कीमत पर यह सब कर रहे हैं।

हमारे देश में ही असमिया, बांग्ला, तमिल आदि भाषाओं के प्रति स्थानीय लोगों की चेतना ही इस वैश्विक दिखने के गैरजरूरी दबाव के बावजूद उन्हें सर्वप्रमुख बनाए हुए है। देश से बाहर रूस, जर्मनी, फ्रांस आदि अनेक देशों में अंगरेजी दूसरी भाषा के रूप में भी स्वीकृति नहीं पा सकी। हमारे देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों की अनेक प्रतिभाएं अंगरेजी में निपुण न होने के कारण अलक्षित रह जाने को अभिशप्त रहती है। वहीं संसार के अनेक देशों में यह भी संभव है कि कोई व्यक्तिअपने अनुशासन का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मूर्धन्य हो और उसे अंगरेजी में चार वाक्य भी बोलना न आता हो। भाषाएं आपस में एक दूसरे को समृद्ध करती हैं, हम ही उनकी महत्ता को न पहचान कर उन्हें परस्पर विरोधी भूमिका में ले आते हैं। अंगरेजी को किसी भी अन्य भाषा की तरह जानना और विश्व में ज्ञान, सूचना और बाजार के संप्रेषण के लिए कुछ ज्यादा ही चलन में होने के कारण प्रमुखता से जान लेना बहुत अच्छी बात है। लेकिन हिंदी की अवहेलना कर उसके अवमूल्यन की स्थिति तक प्रयोग कर अंगरेजी पर गौरवान्वित होना एक नितांत असांस्कृतिक और अनैतिक कर्म है। इस अतिशयता से दूर, हिंदी को अच्छी तरह जानते हुए हमें उसकी भाषिक शक्ति से खुद को अभिव्यक्त करना चाहिए, दायित्वबोध के साथ ही यही रचनात्मक भी बन सकेगा।

 

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