हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बैंकों को कर्ज नहीं चुका पाने वाले सभी बडेÞ उद्योगपतियों के नाम उजागर करने को कहा। इस फंसी हुई रकम को बैंक की भाषा में एनपीए यानी नॉन प्रोफिट एसेट्स कहा जाता है। यानी वह रकम, जिसकी कभी न कभी भरपाई होगी। पर हकीकत कुछ और ही है। दरअसल यह रकम कभी वापस नहीं मिलेगी। यह पूरा मामला अंदाजा से ज्यादा ही गंभीर है।

अनुमानित राशि चार लाख अस्सी हजार करोड़ रुपए है, जो वर्ष 2009 में दो लाख तीस हजार करोड़ रुपए थी। मतलब पिछले सात सालों में भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। एक अनुमान के अनुसार इन पैसों से करोड़ों बच्चों को कई सालों तक मिड-डे मील का इंतजाम किया जा सकता था जिसको चलाना सरकार को घाटे का सौदा लग रहा है। जेएनयू जैसी संस्था में छह लाख विद्यार्थियों के लिए कई सालों तक शिक्षा का इंतजाम किया जा सकता है और लगभग अस्सी सालों तक तीन से तेरह साल तक के बच्चों के लिए प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था की जा सकती थी। साथ ही और भी कई जरूरी काम किए जा सकते थे।

पर अफसोस इस बात का है कि कोई भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं देना चाहती, बल्कि हमारे पैसों से इस रकम की भरपाई हो रही है। इस बार के बजट में पच्चीस हजार करोड़ रुपए एनपीए का घाटा पूरा करने के लिए मंजूर किया गया है और 2001 से अब तक लगभग दो हजार करोड़ माफ किए गए हैं। सवाल यह है कि कौन ले जिम्मेदारी इन पैसों को लाने की या गुनहगारों को सजा दिलाने की? जिस पार्टी की सरकार है वह या जो विपक्ष में हैं या फिर वे बैंक, जो सिर्फ आम लोगों और गरीब किसानों के कर्ज का हिसाब रखते हैं?
’अंकित श्रीवास्तव, नोएडा</p>