उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ जिलों में मतदान हो चुका है, कुछ में जारी है। इन चुनावों के दौरान होने वाली आपराधिक घटनाएं सब कुछ बयान कर देती हैं। आपसी रंजिश में प्रधान पद के प्रत्याशियों की हत्या, मतदान केंद्रों पर हिंसक झड़पें, पुलिस और सुरक्षा बलों से टकराव आम हैं। पिछले कुछ वर्षों से ग्राम पंचायतों को मिलने वाले संवैधानिक विशेषाधिकार ने इसकी दशा बदल दी है। ग्राम सभा के विकास के लिए सरकार द्वारा आवंटित धन सबको आकर्षित करने लगा है। पद के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी जुड़ गई है। स्थानीय राजनीति से ऊपर उठने का बेहतर अवसर भी मिल जाता है। इन्हीं वजहों से हर कोई ग्राम प्रधान बनना चाहता है। स्थानीय चुनाव होने की वजह से प्रचार का व्यावहारिक समय निर्धारित नहीं है। उम्मीदवार पूरी रात मतदाताओं को रिझाने का प्रयास करते रहते हैं। सजातीय मतदाताओं से भावनात्मक रिश्ता जोड़ते हैं। पिछड़े, अति-पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को नकदी, शराब और महिलाओं को कपड़े, साड़ियों आदि का प्रलोभन देते हैं। आर्थिक रूप से संपन्न कोई भी व्यक्ति जो लंबे समय से गांव में न रहा हो, जिसे गांव की आधारभूत समस्याएं भी नहीं पता, जिसके पास गांव की उन्नति की कोई योजना न हो, पैसा खर्च कर के कुछ ही दिनों में मजबूत उम्मीदवार हो जाता है। अपने खेमे के नाबालिग युवाओं का नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने के भी अनेक मामले सामने आए हैं।

ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति संपूर्ण जागरूकता अब तक नहीं आ पाई है। ग्रामीण मतदाता आज भी इसके महत्त्व और आवश्यकता से अनजान हैं। इस वजह से सरकार की तरफ से ग्राम पंचायत के लिए आवंटित धन ग्राम प्रधानों और उनके निकटवर्तियों में बंट कर रह जाता है। इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रख कर भारत सरकार ने पंचायतों को डिजिटल करने की योजना बनाई है। कुछ कदम उठाए भी गए हैं। देखना दिलचस्प होगा कि सरकार अपने इस अभियान में किस हद तक सफल होती है। सरकार को गतिशील रहने की जरूरत है। (हरीश राय, शिव शक्ति अपार्टमेंट, नोएडा)

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इतना अहंकार
संसद नहीं चलेगी क्योंकि एक नेता फंस गया है! ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा कि भ्रष्टाचार के आरोपियों को जिला न्यायालय द्वारा पेश होने का आदेश देने पर देश की संसद को न चलने दिया जाए। हो सकता है, इन्हें निचली अदालत में जाने में शर्म आ रही हो और वहां पेश होना अपनी शान के विरुद्ध लग रहा हो। यही अहंकार इनकी पराजय का कारण रहा है। यह अहंकार की पराकाष्ठा है। अच्छी बात है, आप किसी से नहीं डरें। पर आम भारतीय की तरह देश की न्यायपालिका का सम्मान तो करना चाहिए। (अरुण कुमार प्रसाद, आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली)

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जहरीले दिमाग
कहावतें वास्तव में कालजयी होने के साथ-साथ गागर में सागर भरने वाली होती हैं। ‘नीम न मीठी होय कितना ही सींचो गुड़ घी से’। नफरत से बजबजाते दिमाग अच्छे मकसद को भी गंदा कर ही देते हैं। चेन्नई में आई बाढ़ के पीड़ितों की सहायता और दूसरों से मदद करने की अपील स्वागतयोग्य है। लेकिन एक अपील में कहा जा रहा है कि मैंने शाहरुख खान की फिल्म न देख कर इतने रुपए बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए भेजे। अपील करने वाले महानुभाव इस नेक काम में भी जहर घोलने की जरूरत से यदि बाज आ जाते तो क्या उन्हें कब्ज हो जाता! क्या यह नहीं कहा जा सकता था कि एक दिन फिल्म न देख कर वह पैसा चैन्नई के बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए भेजें? मुसलिम अभिनेता के खिलाफ माहौल बनाना क्यों जरूरी है? यदि इन महानुभावों को बाद में पता चले कि उनके भेजे गए पैसों से किसी मुसलमान की जान बच गई तो क्या ये छाती पीटते हुए चेन्नई जाकर उससे बदला लेंगे? (श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल)

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पहरेदारों पर नजर
पाकिस्तान के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार पांच आरोपियों में से तीन का पुलिस से संबंध एक बार फिर पुलिस महकमे को सवालों के कठघरे में खड़ा करता है। नियमित तौर पर लगते आरोप, भ्रष्टाचार की कहानियां, फर्जी मुठभेड़ जैसी घटनाएं हमेशा से महकमे को शर्मसार करती रही हैं और अब जासूसी ने कंगाली में आटा गीला करने को काम किया है।

गंभीर शारीरिक परीक्षण से गुजर कर भर्ती पाने वाले अफसरों के निकले पेट, भर्ती के बाद की स्थितियों का भंडाफोड़ करने के लिए काफी हैं। समाज की सारी व्यवस्था, समाज का दारोमदार जिस संस्था पर टिका है उसका इस तरह गर्त की ओर बढ़ना, तमाम बुद्धिजीवियों के चेहरे पर चिंता के लकीरों को बढ़ा रहा है।

आज के परिप्रेक्ष्य में इन पहरेदारों की पहरेदारी आवश्यक हो गई है। पुलिस अफसरों के लिए ‘फिटनेस टेस्ट’ को भर्ती तक सीमित न करके नियमित किया जाना चाहिए। साथ ही, इनकी कमाई और गतिविधियों पर किसी संस्था की कड़ी निगरानी होनी चाहिए। समाज के बीच जाकर पुलिस महकमे को भरोसा जीतना होगा वरना वह समय दूर नहीं जब समाज इन पहरेदारों पर से भरोसा खो देगा। (सौरभ कुमार, एमसीयू, भोपाल)

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प्रदूषण के विरुद्ध
दिल्ली की सड़कों पर दिन-ब-दिन बढ़ती गाड़ियों ने लोगों को आवागमन में कितनी सुविधा प्रदान की है यह स्पष्ट नहीं है पर शहर के वातावरण में प्रदूषण की मात्रा अवश्य बढ़ा दी है और उसके आंकड़े भी मौजूद हैं। हाल के कुछ वर्षों में भारत चारपहिया वाहनों का बड़ा बाजार बन कर उभरा है, खासकर छोटी कारों का। दिल्ली के ज्यादातर मध्यवर्गीय घरों में प्रतिव्यक्ति कम से कम एक छोटी कार तो दिखाई दे ही जाती है। गौरतलब है कि दिल्ली की सड़कों पर एक कार में अक्सर एक ही व्यक्ति बैठा होता है। स्वाभाविक है कि इससे सड़क पर गाड़ियों की भीड़ तो बढ़ेगी ही। आज दिल्ली में प्रदूषण का यह आलम है कि प्रदेश सरकार को तीन-तीन दिन के अंतराल पर सम-विषम नंबर वाले वाहन चलाने जैसे फैसले लेने पड़ रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि लोग आपस में कार-पूल की योजना बना कर अपने कार्यस्थलों पर जाएं। यातायात के साधन के रूप में और कम दूरी तय करने के लिए साइकिल का प्रयोग भी प्रदूषण-नियंत्रण में सहायक हो सकता है। (शिप्रा किरण, जामिआ, नई दिल्ली)