सूखे की वजह सेकुलरता है’- यह पहला वाक्य था उस संदेश का, जो तीन-चार रोज पहले ‘वाट्सएप’ पर पढ़ने को मिला। लिखा था: आपको लगेगा कि यह अजीब बकवास है, पर है यह अटल सत्य । फिर कुछ सबूत पेश किए गए। एक: पिछले 68 सालों में सेकुलरता के चक्कर में हिंदुत्व के प्रतीकों को खत्म किया गया। कुछ लोगों को खुश करने के लिए सरकारी स्तर पर पीपल-बड़-नीम के पेड़ों को कटवाने का सिलसिला चला, इसलिए कि हिंदू लोग इनकी पूजा करते हैं। दो: इनकी जगह यूकेलिप्टस, गुलमोहर जैसे पेड़ लगवाए गए। यह शुरुआत राजीव गांधी ने की। तीन: पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सभी मंत्रियों और सांसदों के आवास-परिसरों से पीपल आदि पेड़ हटवा दिए। कम्युनिस्ट क्योंकि मानसिक रूप से पिछड़े होते हैं, तो उनका विचार था कि इन पेड़ों पर भूतों का वास होता है।
इसके साथ एक सुझाव केजरीवाल के लिए था कि अगर दिल्ली को प्रदूषण से मुक्त करना है तो सम-विषम की नौटंकी छोड़ कर हर पांच सौ मीटर पर पीपल के पेड़ लगवाएं। सुझाव बुरा नहीं अगर राजधानी की सड़कों पर विशाल पारंपरिक वृक्षों के लिए जगह बन सके। यह सच है कि सूखे का कारण देश के बड़े भूभाग में पर्याप्त वर्षा का न होना है और वर्षा न होने का मुख्य कारण देश में वन-क्षेत्र का निरंतर सिकुड़ते चले जाना है। पीपल-बरगद-नीम या पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखने वाले तथा औषधीय गुणों से भरपूर और भी अनेक वृक्षों को समूल नष्ट किया जाना हमारे समय की एक बड़ी त्रासदी है। हमारे परिवेश की एक ऐसी रिक्तता, जिसकी भरपाई नई प्रजातियों के सजावटी वृक्ष कभी भी नहीं कर पाएंगे।
पर उन लोगों को क्या कहिएगा जो अपने संकीर्ण विचारों का कचरा इधर-उधर फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस तरह दुरुपयोग करते हैं! जो धरती की दुर्दशा के लिए भी ‘सेकुलरता’ की सोच को दोषी ठहराने लगते हैं! क्या इन्हें नगरों-महानगरों की जीवन-शैली के बदलते रंग नजर नहीं आते? वाहनों की बढ़ती भीड़, दो-चार-छह-आठ लेन की सड़कें, कंक्रीट के जंगल जैसी दिखतीं इमारतें और कांप्लेक्स! आदमी की बढ़ती जा रही विलासिता, शहरीकरण का बढ़ता रुझान और पर्यावरण के प्रति निरंतर घटती जागरूकता! हमारी जीवनदायिनी वनस्पति पर होने वाले प्रहारों के पीछे वस्तुत: यही मूल कारण रहे हैं कि आज प्रकृति मनुष्य से रूठ गई लगती है। इन्हें अनदेखा करना और पिछली सरकारों की ‘सेकुलरता’ को सूखे की वजह बताना, यानी संकट की घड़ियों में भी इन्हें सियासत सूझ रही है!
जहां तक वृक्षोपासना की बात है तो मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि चाहे गंगा हो या फिर पीपल, इनके साथ सबसे अधिक ज्यादतियां हिंदू समाज ने ही की हैं। अपने ही शहर की बात करूं तो लोगों की धूपबत्ती वाली आस्था के कारण बीच शहर के कुछ पीपल झुलस-से गए हैं और वे पीपल जो लोगों की पहुंच से बाहर हैं, हरे-भरे लहलहा रहे हैं। पीपल के नीचे चमकीले कपड़े लटकाना, तस्वीरें सजा कर धूपबत्ती से धुआं करना उन्हें पीपल को जल अर्पण करने से ज्यादा जरूरी लगता है। आखिर ये लोग कौन हैं? सेकुलरता को दोष देने वाले बताएंगे?
’शोभना विज