आज दुनिया ऐसे मुहाने पर खड़ी है, जहां जीवन चतुर्दिक संकट में फंसा नजर आता है। माना जाता है कि संकट की घड़ी में धर्म सत्ता पर अपने-अपने समुदायों को सही रास्ता दिखाने की जिम्मेवारी होती है। लेकिन बीते कई वर्षों से जितना अहित और विवाद धर्म सत्ता के रहनुमाओं ने खड़ा किया, उतना शायद किसी और ने नहीं किया हो। हिंदू परंपरा में महत्त्वपूर्ण धर्माधिकारी माने जाने वाले शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने ‘स्त्रियों द्वारा शनि पूजा करने पर बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोतरी होगी’ जैसा विवादित बयान देकर फिर बवाल खड़ा कर दिया है।

गौरतलब है कि हाल ही में शनि मंदिर में स्त्रियों ने चार सौ वर्षों की परंपरा तोड़ कर शनि की पूजा करके यह जता दिया था कि उनका भी शनि देवता को पूजने का बराबर का अधिकार है। कोर्ट ने भी उनकी इस दलील का समर्थन किया है। दरअसल, हिंदू परंपरा ही ऐसी रही है कि जिसमें स्वीकार्यता की पर्याप्त जगह रही है, जहां लकीर को पीटने की बजाय समयानुरूप नई लकीर खींचने की वृत्ति रही है।

शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती अपने बयानों के चलते पहले भी विवादों में रहे हैं। याद हो कि बीते इलाहाबाद महाकुंभ में उन्होंने व्यवस्था से रुष्ट होकर खुद के वहां न जाने की घोषणा कर विवाद खड़ा किया था और एक वर्ष पहले सार्इं बाबा को देवता मान कर उन्हें पूजने की वृत्ति को गलत ठहराया था। जबकि सार्इं बाबा की पूजा कोई आज से नहीं, सदियों से हो रही है। किसी धर्मसत्ता के शीर्ष रहनुमाओं पर समाज का मार्गदर्शन करने का जिम्मा होता है और विवाद की स्थिति में समाधान की वे आंख-कान होते हैं। लेकिन जब शंकराचार्य जैसे धर्मगुरु ही विवाद पैदा करने लगें तो समाज किस दिशा में जाएगा।

शंकराचार्य होने का आशय यह नहीं हो सकता कि वे बिना किसी आधार के कुछ भी बोलें। इसलिए अगर उन्होंने स्त्रियों द्वारा शनि पूजा करने से बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होने के संकेत दिए हैं, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके इस तर्क का आधार क्या है? क्या उन्हें कोई ऐसे संकेत मिले हैं या बलात्कार करने की मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने उन्हें ऐसा करने के संकेत दिए हैं? साथ ही यह सवाल भी है कि अब तक स्त्रियां शनि देवता की पूजा नहीं कर रहीं थी, तो क्या उनके साथ बलात्कार की घटनाएं नहीं हो रही थीं? अगर ऐसा ही चलता रहा तो शंकराचार्य की कही बातों का मूल्य समाप्त हो जाएगा और वे कौतूहल का विषय बन कर रह जाएंगे। अफसोस है कि शंकराचार्य व्यवहार और वक्तव्यों के विवादाचार्य बनकर रह गए हैं। (श्रीश पांडेय, सतना, मध्यप्रदेश)
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रहम पर रोजी
दिल्ली में लाखों लोग अपनी रोटी-रोजी उन खोकों की बदौलत कमाते हैं जो सरकारी निगाहों में गैरकानूनी जगहों पर वर्षों से स्थानीय पुलिस और नगर निगम कर्मचारियों के रहमोकरम से अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं। जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो यह सुनने में आया था कि इन मजबूर लोगों को सरकार टोकन देकर पुलिस और नगर निगम कर्मचारियों के शोषण से बचाएगी। ऐसा नहीं हो पाया और नतीजतन, जब जिसकी मर्जी आती है, वही इनसे पांच सौ या हजार रुपए मांगता रहता है। यों तो ये अपने क्षेत्र के कर्मचारियों को नियमित रूप से हर महीने कुछ ‘सुविधा-शुल्क’ देते रहते हैं, लेकिन जब जिसकी मर्जी होती है, वह इनको चालान का भय दिखा कर लूटता रहता है। दिल्ली और केंद्र की खुद को जन-कल्याणकारी कहने वाली सरकारों से निवेदन है कि वे इस दिशा में इन गरीब खोके वालों को राहत देने के लिए कुछ ठोस कदम उठाएं, अन्यथा ये बेचारे यों ही अपने मेहनत की कमाई से हाथ धोते रहेंगे। (सुभाषचंद्र लखेड़ा, नई दिल्ली)
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कुप्रबंध का पानी
दिल्ली में पानी की किल्लत उतनी भी नहीं है, जितना रोना रोया जा रहा है। पानी के वितरण में असमानता का स्तर अमीरी-गरीबी के अंतर से भी ज्यादा बढ़ रहा है। लट्यंस वाली दिल्ली को प्रतिदिन लगभग तीस करोड़ लीटर पानी मिलता है, लेकिन महरौली जैसे इलाके में यह महज करोड़ लीटर से भी कम है। असल में राजधानी में पानी का प्रबंधन नहीं है। बड़े-बड़े होटलों में पानी का कोई हिसाब नहीं है, वहीं मुहल्लों में पानी के अभाव की स्थिति पैदा कर हाय-तौबा मचा दी जाती है। सुबह चार बजे से आठ बजे तक पाइप लाइन से सप्लाई होने वाला पानी टंकियों के ऊपर से बहता रहता है और दूसरी तरफ टैंकरों से पानी के लिए लंबी लाइनें और लड़ाई-झगडे होते रहते हैं। हालत यह है कि सरकारी कॉलोनियों में टंकियां खुली रहती हैं और बगल में बसी झुग्गी झोपड़ियों में बसने वाले लोग पानी चुरा कर पीते हैं। दिल्ली में पाइपलाइन लीकेज के जरिए लगभग चालीस फीसद पानी बर्बाद हो जाता है। कहीं गोल्फ कोर्स में हजारों लीटर पानी बर्बाद हो रहा है, तो कहीं पीने भर के लिए कई दिनों का पानी प्रयोग हो रहा है। (विनय कुमार, आइआइएमसी, नई दिल्ली)
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अपना गिरेबां
आज किसी काम से बाहर जाते हुए अपने रास्ते में एक आपातकालीन वाहन एंबुलेंस दिखाई दिया और उस वाहन के साथ लोगों द्वारा किया जा रहा बर्ताव जो बेहद अमानवीय लग रहा था। उस वाहन को जगह देने के बजाय लोगों के बीच अपनी गाड़ी को उससे आगे निकलने की होड़-सी लगी थी। मुझे नहीं लगता कि यह कोई मानवीय मूल्य है कि कोई व्यक्ति अपने जीवन और मृत्यु के बीच एंबुलेंस में लड़ रहा है और लोगों को उसकी परवाह न होकर अपने घर या दफ्तर पहुंचने की होड़ है। यह सब शायद इसलिए होता है कि मानव जाति ने बहुत तरक्की कर लिया है और अब हमारे पास मानवता के लिए वक्त नहीं बचा। हमें शायद कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें फर्क तब पड़ता है जब हमारे परिवार का कोई व्यक्ति उस आपातकालीन वाहन या एंबुलेंस में होता है। तब हम ही दूसरों से उस चीज की अपेक्षा करते हैं जो हमने खुद कभी भी किया नहीं, और दूसरों को इसके लिए कोसते हैं।

जिस अच्छे बदलाव की हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, वह बदलाव पहले खुद में करें। इस पत्र के माध्यम से मैं आग्रह करना चाहूंगा कि कृपया एंबुलेंस के साथ-साथ सभी आपातकालीन वाहन को आगे निकलने के लिए जगह दें। उस वाहन में कभी दूसरों का जीवन से संघर्ष हो सकता है तो हमारा खुद का। (अनुग्रह नारायण, लखनऊ)