‘अंधविश्वास की जकड़न’ (संपादकीय, 18 नवंबर) में जिस घटना का विश्लेषण किया गया है, वह वाकया इंसानियत को शर्मसार करने वाला है। छह वर्षीय बच्ची से ऐसी बर्बरता की गई, वह भी सिर्फ संतान सुख के लिए, वह हैरान करने वाली है। आजादी के सत्तर से भी अधिक वर्षों के बाद भी हम आम जनमानस को विज्ञान पर भरोसा नहीं दिला पाए हैं तो ये हमारी सबसे बड़ी पराजय है। दोष सिर्फ दंपत्ति का नहीं है, बल्कि उस समाज का भी है, जो आज भी अंधविश्वास को अपना हथियार मानता है और महिला को संतान का सुख देने वाली एक वस्तु मानता है।
अंधविश्वास हमारी नसों में फैल चुका है, जिसका निवारण सिर्फ हम ही कर सकते हैं। अंधविश्वास की कितनी घटनाएं हम रोज ही पढ़ते हैं। कभी किसी महिला को डायन बता कर उसकी जान ले ली जाती है या उनका समाज से बहिष्कार कर दिया जाता है। झारखंड में अक्सर किसी महिला को डायन बता कर जान से मार देने की घटना सामने आती रहती है।
बिहार में भी डायन बता कर महिला को निर्वस्त्र करके घुमाने की घटनाएं सामने आई हैं। न ही आरोपियों पर सही तरीके से कारवाई होती है, न ऐसे वाकये रुक पाते हैं। मुद्दा यह है कि इन घटनाओं पर विराम कब और कैसे लगेगा। क्या एक बेहतर समाज की जिम्मेदारी हमारी नही हैं?
’अनिमा कुमारी, पटना, बिहार
शिक्षा का दायरा
हाल ही में लागू नई शिक्षा नीति के तहत शुरुआती कक्षाओं से लेकर पीएचडी तक की शिक्षा के प्रारूप और व्यवस्था में बदलाव किए गए। जब इस नीति की घोषणा हुई तो उसके बाद इसके तहत अनुसार मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया। हो सकता है कि इसके पीछे मौजूदा राजनीतिक दलों और खासतौर पर सत्ताधारी दलों की कोई अपनी दृष्टि काम करती हो, लेकिन बेहतर शिक्षा के लिए केवल शिक्षा नीति बदलना या बनाना काफी नहीं है, बल्क उन्हें हकीकत में लागू करना या करवाना उससे भी कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
आज का विद्यार्थी किस तरह शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक उपलब्धियों को हासिल करने के बजाय किताबी कीड़ा बन कर रह जा रहा है, यह छिपा नहीं है। दूसरे, महामारी से उपजे हालात में जो नई व्यवस्था बनती दिख रही है, उसमें एक बड़ी तादाद में विद्यार्थियों के शिक्षा व्यवस्था से बाहर होने की आशंका खड़ी हो गई। ऐसे में अगर शिक्षा नीति में सबसे लिए उसके संसाधनों की पहुंच में शिक्षा सुनिश्चित करने की ओर नहीं बढ़ती है, तो उसे कैसे देखा जाएगा!
रोशनी, गोरखपुर, उप्र