धरती के नीचे और ऊपर, दृश्यमान और अदृश्य, यह जो एक अनंत संसार है वनस्पतियों और जीवों का, वह सौर-ऊर्जा के साथ-साथ हवा, पानी और मिट्टी से अनुप्राणित होता है। लेकिन आज ये जीवनदायी स्रोत मनुष्य की संवेदनहीनता के कारण अपनी शक्ति खो बैठे हैं। पंकज चतुवेर्दी के लेख ‘उन्नत बनाम पारंपरिक खेती’ (13 फरवरी) में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारण मिट्टी के अस्वस्थ होते चले जाने और उससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का अच्छा विश्लेषण किया गया है।

कुछ वर्ष पहले इसी अखबार में अरुण कुमार ‘पानीबाबा’ की रचना ‘महंगाई से लड़ाई’ पढ़ने को मिली थी। उनके एक छोटे-से वाक्य ने मुझे चौंका दिया था- ‘मिट्टी का निर्माण करो।’ उन्होंने बताया कि रसोई में इस्तेमाल होने वाले खाद्य-पदार्थों का कोई हिस्सा बेकार समझ कर कूड़ेदान में नहीं फेंका जाना चाहिए। पॉलीथिन, प्लास्टिक, कांच या धातु के टुकड़ों को छोड़ कर बाकी सब एक गड्ढे में गिराते जाने से कुछ समय बाद जैविक खाद तैयार हो जाती है। इस प्रकार, उपजाऊ मिट्टी प्राप्त की जा सकती है। पर शहर के मकानों में जहां छोटी-छोटी क्यारियों से ही बागवानी का शौक पूरा करना पड़ता है, वहां जैविक खाद बनाने के लिए गड्ढा कहां खोदा जाए?

मेरे कई दिन इसी मायूसी में बीत गए थे। फिर एक अच्छी सलाहकार सहेली ने मुझे अपना अनुभव सुनाया कि उन्होंने कभी मिट्टी के घड़े में ऐसी खाद तैयार की थी और उनका वह प्रयोग बहुत सफल रहा था। मुझे राह मिल गई। मैंने घर की छत पर एक-एक करके आठ घड़े इकट्ठे कर लिए और उनकी कतार बना ली। छत के एक कोने में, घर में लगे एक-दो पेड़ों और लताओं से झड़ने वाले सूखे पत्ते बटोर कर जमा करना शुरू किया। रसोई में एक छोटी-सी प्लास्टिक की बाल्टी और एक बड़ी छलनी रखी। पूरे दिन के फल-सब्जी के छिलकों, छलनी में दिन भर इस्तेमाल की गई चाय-पत्ती या कभी जूठे हुए छिलकों को धोकर, छत पर रखे घड़े में डालना, ऊपर थोड़े-से सूखे पत्तों को हाथों में मसल कर फैला देना, पानी के छींटे मार देना, कुछ दिन बाद भर चुके घड़े को सबसे आखिर में पहुंचा देना, सबसे पुराने घड़े की खाद निकाल कर कुछ देर शीट पर फैला कर, सुखा कर इस्तेमाल करना- बरसों से यह मेरी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है। किसी ने आरओ के बेकार बहते पानी की उपयोगिता समझाई तो उसे भी बड़ी बोतलों में संग्रहित करके बूंद-बूंद पेड़-पौधों को अर्पित करना अच्छा लगने लगा। (शोभना विज, पटियाला)

कर्ज की लूट
देश के सार्वजनिक बैंक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। पिछले तीन साल में बैंकों ने 1,14,000 करोड़ रुपए के कर्ज ‘राइट आफ’ कर दिए हैं, यानी इनकी वसूली की संभावना बहुत कम है। आंकड़ों की वेबसाइट इंडिया स्पेंड के एक विश्लेषण के मुताबिक मार्च 2016 में बैंकों के फंसे हुए कर्ज, जिसे बैंकिंग की भाषा में एनपीए कहते हैं, पिछले वित्त वर्ष के 3,24,000 करोड़ रुपए से बढ़ कर 4,26,000 करोड़ हो जाएंगे।

भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार कर्ज फंसने की तीन वजहें होती हैं। वास्तविक व्यावसायिक वजहें, गलत व्यावसायिक फैसले और तीसरी, अक्षमता और खराब प्रबंधन। वजहें चाहे जो भी हों, लेकिन इतनी बड़ी राशि का कर्ज डूबने का सीधा असर करदाताओं और देश की आर्थिक गतिविधियों पर पड़ता है। अगर प्राइवेट बैंकों की बात की जाए तो एनपीए के मामले में उनकी स्थिति इतनी खराब नहीं है। निजी बैंकों के कर्ज भी फंसते हैं, लेकिन उनकी समस्या सार्वजनिक बैंकों के मुकाबले बहुत कम है। सरकारी बैंको की इस हालत के पीछे उनका ढांचा और कर्ज के लेन-देन में सरकारी हस्तक्षेप भी एक वजह है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सार्वजनिक बैंक मौजूदा संकट से उभर पाएंगे।

सार्वजनिक बैंकों का यह कर्ज भारतीय अर्थव्यवस्था में एक बड़े बोझ के रूप में आसन्न है। सरकार बैंकों को पूंजी देकर इस संकट से उबार सकती है, लेकिन यह संकट का दूरगामी समाधान नहीं है। सार्वजनिक बैंक और भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। एक कंपनी ने बीस सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सर्वे में पाया कि इनके अनेक वरिष्ठतम अधिकारी 2016-17 में रिटायर हो रहे हैं। ऐसे में अच्छे अनुभवी लोगों का टोटा भी बैंकों में हो जाएगा। दूसरी समस्या कर्मचारियों में तकनीकी साक्षरता की है। साथ ही प्राइवेट बैंकों से भी जोरदार प्रतिस्पर्धा मिल रही है। सरकार को स्थिति संभालनी होगी और बैंकों के कामकाज को ज्यादा व्यवस्थित और पेशेवर बनाना होगा। (आदित्य कुमार द्विवेदी, आइआइएमसी, दिल्ली)

किसके अच्छे दिन
आज सरकार कुछ काम करे, न करे, पर उसका प्रचार करना उसका पहला दायित्व हो गया है, जिस तरह से वह अपने किए गए कार्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही है और उसके विज्ञापन के लिए लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, वह निंदनीय है। हमारे देश में आज भी किसानों की स्थिति दयनीय बनी हुई है, बहुत-से किसान मित्रों को तो अभी भी मुआवजा नहीं मिला है। वे सिर्फ जुमलों के बीच फंसे नजर आ रहे हैं। किसानों की दशा इससे पहले इतनी दयनीय कभी नहीं हुई, न तो किसान को सरकार से वक्त पर खाद बीज दिए जा रहे हैं और न ही गरीब किसानों को मुआवजा। बस विभिन्न प्रकार के नाटक किए जा रहे हैं। अच्छे दिन न तो किसानों के आए, न ही आम जनता के। अच्छे दिन तो नेताओं और विज्ञापन कंपनी वालों के आए हैं। (शुभम साहू, होशंगाबाद)

कानून के घर में
आखिर अपनी देशभक्ति की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए कोर्ट परिसर के बाहर हाथों में तिरंगा लेकर वंदे मातरम का नारा लगाने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? ऐसा कौन-सा अधिकार वकीलों के पास है जो उन्हें कानून के दायरे से बाहर जाकर मारपीट करने की इजाजत देता है। मारपीट करके वे दिखाना क्या चाह रहे हैं? क्या इस संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण कम हुआ था जो अब कानून की पढ़ाई करने वाले भी इस मामले पर मारपीट कर रहे हैं। पटियाला हाउस अदालत में वकीलों की गुंडागर्दी का कहीं से भी समर्थन नहीं किया जा सकता। (मीना बिष्ट, पालम, नई दिल्ली)