यह अफसोसनाक है कि कि देश की बड़ी खिलाड़ियों में शुमार सायना नेहवाल को पद््मभूषण पुरस्कार में नामित होने के लिए सार्वजनिक रूप से आवाज उठानी पड़ी। खेल मंत्रालय अब तर्क दे रहा है कि बैडमिंटन एसोसिएशन आॅफ इंडिया की सिफारिश नहीं मिलने से नाम भेजने में देरी हुई।

माना कि बैडमिंटन एसोसिएशन सायना का नाम भेजना भूल गया लेकिन मंत्रालय क्या कर रहा था? विश्व खेल मंच पर देश का नाम रोशन करने वाली सायना की उपलब्धियां क्या उससे छिपी हुई थीं? बैडमिंटन मुकाबलों में ओलंपिक के साथ एशियाई और राष्ट्रमंडलीय खेलों समेत अनेक प्रतियोगिताओं में सायना ने करोड़ों देशवासियों के चेहरे पर खुशियां बिखेरी हैं।

ऐसी खिलाड़ी को किसी सम्मान के लिए नामित होेने की आवाज उठाने की नौबत शायद भारत जैसे देश में ही देखने को आती हो। पिछले साठ सालों से पद्म पुरस्कारों से देश की विभूतियों को सम्मानित किया जा रहा है लेकिन हर बार इन्हें लेकर विवाद उठता है। इसलिए कि पुरस्कार दिए जाने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। या फिर इसलिए कि इतना बड़ा सम्मान वितरित किए जाने के पीछे भी अपने-परायों का ‘खेल’ चलता है। कारण चाहे पारदर्शिता का अभाव और अपनों को उपकृत करने की परंपरा दोनों ही रहते आए हों लेकिन क्या इसमें सुधार नहीं किया जा सकता? किसी भी क्षेत्र में देश के लिए योगदान देने वाली विभूतियों के चयन के लिए सतत प्रक्रिया क्यों नहीं हो सकती? क्यों किसी मंत्रालय या संगठन को किसी का नाम आगे बढ़ाने की जरूरत पड़े?

पिछले छह दशकों में कुल 4202 पद््म पुरस्कार वितरित किए गए हैं, यानी हर साल औसतन सत्तर। आजादी के 67 साल बाद भी यदि हम हर वर्ष 70-75 प्रतिभाशाली व्यक्तियों की पहचान नहीं कर पाते तो क्या हमें उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने का अधिकार होना चाहिए? यहां सवाल सिर्फ सायना अथवा उन जैसे चंद लोगों का नहीं जो ऐसी व्यवस्था का खुलकर विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।

सवाल देश के एक बड़े सम्मान से जुड़ा है जो किसी भी विवाद के घेरे में नहीं आना चाहिए। इससे सम्मान की गरिमा तो कम होती ही है, उसके राजनीतिक निहितार्थ भी निकाले जाते हैं। देश का कोई भी खुद्दार नागरिक शायद ही आगे आकर यह कहेगा कि उसे सम्मानित किया जाए। सभी बड़े सम्मान देने की प्रक्रिया का ईमानदारी से मूल्यांकन कर लिया जाए तो विवाद की आशंकाओं से बचा जा सकता है।

 

’मंदीप यादव, खैरथल, अलवर

 

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