आज 26 अगस्त को महिला समानता दिवस मनाया जाता है। कानून की नजर में भले ही महिला और पुरुष को बराबर का अधिकार मिला हुआ हो, लेकिन समाज में अभी भी महिलाओं को लेकर लोग दोहरी मानसिकता के शिकार हैं। पचास सालों तक चली लड़ाई के बाद अमेरिका में 26 अगस्त 1920 को उन्नीसवें संविधान संशोधन के जरिए पहली बार महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला था। इसके साथ ही महिलाओं को समानता का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष करने वाली महिला वकील बेल्ला अब्जुग के प्रयास से 1971 से 26 अगस्त को ‘महिला समानता दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा।

हमारे देश के विकास में महिलाओं को सहभागी बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। भारतीय संविधान द्वारा कानूनों के माध्यम से महिलाओं की सुरक्षा और सामान्य जीवन में उनकी समान भागीदारी के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। तिहत्तरवें संवैधानिक संशोधन के बाद देश की पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है, जिससे आज कई महिलाएं ऊर्जावान नेतृत्व से अपने स्थानीय परिवेश में परिवर्तन ला रही हैं। सशक्त महिला ही सशक्त समाज की आधारशिला है।

आज महिलाओं के मुद्दों और सरोकारों पर कहीं अधिक संवेदनशील होने और परिपक्वता दिखाने की आवश्यकता है। बालिका के जन्म से लेकर उसके युवा होने और युवा से बुजुर्ग होने तक उन्हें हर वाजिब हक की पैरवी हमें करनी होगी। अगर हर माता-पिता लड़की और लड़के का भेद अपने मन से हटा दें तो आंकड़ों का अंतर अपने आप ही मिट जाएगा। इस सामाजिक मानसिकता को बदलने का जिम्मा देश की वर्तमान युवा पीढ़ी को ही उठाना होगा। किसी भी समाज का स्वरूप वहां स्त्री की स्थिति पर निर्भर करता है। अगर महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ और सम्मानजनक होगी, तो समाज भी सुदृढ़ और मजबूत होगा।
’प्रत्यूष शर्मा, हमीरपुर, हिप्र

सुविधा का रुख

बिहार सहित देश के कई राजनीतिक दल देश में जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। कहने को तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है और जातिवाद से ऊपर उठ चुका है, मगर राजनीतिक दल अपने हितों के खातिर जातिवाद को निरंतर बढ़ावा देते आ रहे हैं। लेकिन जाति आधारित जनगणना के सवाल पर कई जगहों पर विरोध या द्वंद्व चल रहा है। जब ज्यादातर विपक्षी दल जातिगत गणना की मांग के पक्ष में हैं तो किसी खास दल को भी इससे कोई विरोध नहीं होना चाहिए। रहा सवाल इसके उपयोग या दुरुपयोग का, तो भले ही जातिगत गणना हो या न हो, दुरुपयोग तो जारी है।

जाति के नाम पर स्कूलों में प्रवेश, नौकरी से लेकर पदोन्नति में प्राथमिकता हो और हर बड़ी योजना जातिवादी समीकरणों को लेकर ही बनाई जा रही हो तो फिर जाति जनगणना नहीं करवाने का कोई कारण नजर नहीं आता। हम सभी के उपनाम आखिर हमारी जाति को ही प्रकट करते हैं। फिर ज्यादातर सरकारी कागजातों में बिना जाति बताए कोई काम नहीं होता है, तो जाहिर है कि जातिवाद के कीटाणु हमारे शरीर में हैं। राजनीतिक दल लाख छिपाएं, इनकी चुनावी योजनाएं भी हर क्षेत्र की जातियों के वोटर को देख कर ही तय की जाती हैं। तो जाति जनगणना होने में कोई अड़चन की बात नहीं होनी चाहिए।
’सुभाष बुड़ावन वाला, रतलाम, मप्र