भारतीय रिजर्व बैंक बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को बैंकों के संचालन की इजाजत देने के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की गति बढ़ाने और वित्तीय प्रंबधन को दुरुस्त करने की प्रक्रिया के क्रम में यह प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इस प्रस्ताव पर केंद्रीय बैंक के पूर्व शीर्ष अधिकारियों समेत कई विशेषज्ञों ने एतराज जताया है।
बैंक के आंतरिक कार्यकारी समूह के पांच में से चार सदस्यों ने भी पहले सुझाव दिया था कि ऐसे घरानों को बैंक चलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, पर इस पैनल ने यह भी कहा था कि कॉरपोरेट स्वामित्व की कंपनियों को बैंकों में तब्दील किया जा सकता है। बैंक के आंतरिक पैनल का मानना है कि औद्योगिक कंपनियों की कार्य संस्कृति अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नही है। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि कॉरपोरेट जगत के हिस्सों पर बैंकों का बड़ा बकाया है और ये लोग बैंकों के निंयत्रण बेजा फायदा उठा सकते हैं।
एक चिंता आर्थिक शक्ति के केंद्रीकृत होने को लेकर भी है। बैंकिग प्रणाली अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। हमारे देश के बैंकों में फंसे हुए कर्ज का अनुपात मौजूदा अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक है। कोरोना महामारी से पैदा हुई परिस्थितियों ने बैंकों को प्रभावित किया है। साल 2020-21 के वित्त वर्ष में एनपीए में दो अंकों की बढ़ोतरी का अनुमान है।
रिजर्व बैंक ने इस एनपीए को पुनर्व्यवस्थित करने का बैंकों को एक मौका दिया है। लेकिन इससे पहले आई केंद्रीय बैंक की रिपोर्ट में बताया गया था कि सभी व्यावसायिक बैंकों का कुल एनपीए अनुपात इस वर्ष मार्च के 8.5 फीसदी के स्तर से बढ़ कर अगले साल मार्च में 12.5 फीसदी हो सकता है। बैंकों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए रिजर्व बैंक ने अनेक नियमन किए हैं।
केंद्र सरकार ने पिछले साल बैंकों के लिए जहां सत्तर हजार करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्धता का प्रावधान किया था, इस साल बीस हजार करोड़ रुपए का प्रावधान है। कुछ सहकारी बैंकों के लापरवाह प्रंबधन से पैदा हुए संकट और व्यावसायिक बैंकों के कुछ नकारात्मक व्यवहार से आम ग्राहकों के साथ निवेशकों का भरोसा भी डिग सकता है।
इसलिए सरकार की तरफ से बैंकों को भी हिदायत दी जाती रही है कि ग्राहकों का समुचित खयाल रखे तथा सुनिश्चित करे की रिजर्व बैंक और सरकार की नीतियों का लाभ लोगों तक पहुंचे। बैंकों के प्रबंधन और परिसंपत्तियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी का उदेश्य बैंकों की समस्या का समाधान है। लेकिन इस बारे में कोई भी अंतिम निर्णय सभी पहलुओं पर समुचित सोच-विचार के बाद ही लिया जाना चाहिए और इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि देश और ग्राहकों के हितों की रक्षा हो। इस संदर्भ में जल्दबाजी में कोई भी कदम नहीं उठाया जाना चाहिए।
’भूपेंद्र सिंह रंगा, हरियाणा
हाशिये के लोग
हमारे देश में पचहत्तर प्रतिशत लोग किसान और मजदूर वर्ग से आते हैं। आज जो लोग हमारे देश के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, आज उन्हीं वर्गों के लोगों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। उनमें से ज्यादातर खाने तक को मोहताज होते जा रहे हैं। जो देश के पेट को पालते रहे हैं, आज उनके पेट को पालने वाला कोई नहीं दिख रहा है। पूर्णबंदी से मजदूरों के दैनिक जीवन बेहाल हो चुका है।
आय का कोई भी स्रोत नहीं बचा है। ऐसी हालत में कितने दिन और कैसे जीएंगे ये लोग। देश के अमीर वर्गों के पास तो विरासत की भी संपत्ति है। बहुतों के पास सरकारी नौकरी है। ऐसे सुरक्षित लोग तो आराम से कई साल तक अपना जीवन सहज तरीके से जी लेंगे। लेकिन गरीब क्या करेंगे? जो लोग दिन-रात, सर्दी-गरमी, धूप-छांव मेहनत करते हैं, उनकी दैनिक कमाई कितनी है, यह किसी से छिपा नहीं है। मुश्किल से उनका जीवन चल पाता है। अलग-अलग वर्गों की आय और जीवन-स्तर में बहुत बड़ा फासला है।
इतनी दोहरी नीति क्यों लागू की जाती है। जो लोग और वर्ग समूचे देश को खिलाने का जिम्मा लेता है, उनके साथ इतना अन्याय क्यों किया जा रहा है? आज पूरे देश का किसान रो रहा है, क्योंकि न तो उनके फसलों को अच्छी कीमत दी जा रही और न ही उनके लिए कोई दूसरा उपाय ही किया जा रहा है! सत्ता की लालच में सरकार गरीबों को मसल रही है।
देश की जनता तो आर्थिक रूप से इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह सरकार के खिलाफ बोल भी नहीं सकती। आज देश के मजदूर वर्ग कर्ज में डूब चुके है, कर्ज चुकाने में असमर्थ लोग आत्महत्या जैसे कदम उठा ले रहे हैं। अगर समय रहते सरकार ने कुछ नहीं किया तो आने वाले दिनों में समाज और देश कसौटी पर होगा।
’सचिन आनंद, खगड़िया, बिहार</p>