वंशवाद और गुटबाजी की राजनीति देश-प्रदेश के व्यापक हितों की रक्षा नहीं कर सकती। सामान्य रूप से अधिकतर राजनीतिकों की ऊर्जा और चेतना अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने की दिशा में जाया हो रही है। यह निश्चित है कि जितना समय जमावट पर खर्च किया जाता है, उतने समय में देश प्रदेश की बनावट में आमूलचूल परिवर्तन किया जा सकता है। लेकिन वर्तमान दौर के राजनीतिकों में इतना धीरज दिखाई नहीं देता। कहने को तो दलबदल विरोधी कानून लागू है, लेकिन इसमें भी विभिन्न गलियां निकाल ली गई है।

इस स्थिति के चलते सुलझी हुई विचारधारा के लिए राजनीति में स्थापित होना दुष्कर होता जा रहा है। परिणामस्वरूप यह वर्ग राजनीति से पर्याप्त दूरी बना कर चलता है। ऐसी स्थिति में राजनीति की दशा और दिशा भटकी हुई अवस्था में दिखाई देती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते अनर्गल प्रलाप का सिलसिला भी राजनीति की शुचिता और पवित्रता को दांव पर लगाता प्रतीत होता है।

लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में जातीय गणित प्रधानता पाए हुए होता है। यही नहीं, विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा भी जातिगत समीकरण को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशी का चयन किया जाता है। इसके साथ-साथ सरकार के गठन में वर्ग और क्षेत्र संतुलन के नाम पर चयन किया जाता है। यह सब लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत शुमार कर लिया गया है।

राजनीति में नित नए नए समीकरण बनते हैं। ऐसे समीकरण सकारात्मक कम और नकारात्मक रूप से ज्यादा होते हैं। कालांतर में एक सफल फार्मूला अन्यों के लिए अनुकरणीय हो जाता है। राजनीति में व्याप्त विकृत परंपराओं को मान्य परंपरा में लगभग सम्मिलित कर लिया गया है। राजनीति में तर्क और बुद्धि का कोई स्थान नहीं है।

हालांकि राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप एक निरंतर चलने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इसकी अति इसकी गंभीरता को नष्ट कर चुकी है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, इसलिए राजनीति में पलटवार भी किया जाता है। ऐसे में राजनीति की शुचिता और पवित्रता तक दांव पर लग जाती है। कालांतर में इसे अनिवार्य बुराई के रूप में सहज स्वीकार कर लिया जाता है। राजनीति में व्याप्त तमाम विकृतियां सही समय पर सही प्रतिकार के अभाव में परंपरा के रूप में तब्दील हो चुकी है।

कुल मिला कर राजनीति का ताना-बाना छल और कपट के धागे से बुना गया है, ऐसा ही प्रतीत होता है। जहां तक आम नागरिकों का प्रश्न है, तो उनकी जागृति के आसार दिखाई नहीं देते। इस स्थिति को बदलना होगा। बेहतर हो, अगर राजनीतिक स्तर पर जन-जागृति का अलख जगाया जाए। इस दिशा में आज नहीं तो कल, लेकिन हमें ही सोचना होगा।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र

सूखती धरती

जल की तुलना जीवन और अमृत से किया जाता है, लेकिन भूगर्भीय जल के दोहन से मनुष्य का जीवन संकट में पड़ गया है। भूगर्भीय जल के दोहन में भारत दुनिया में सबसे प्रथम स्थान पर है। ग्रामीण भारत की पचासी फीसद आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। घरेलू कार्यों में पानी का उपयोग से अधिक दुरुपयोग किया जा रहा है।

देश में सन 2007 से 2017 के बीच में इकसठ फीसद भूगर्भ जल के स्तर में गिरावट आई है। यह बेहद चिंताजनक आंकड़ा है। पानी के लिए हम प्रकृति और भूगर्भीय जल पर निर्भर है। सच यह है कि हम प्राकृतिक जल स्रोतों का अतिक्रमण कर रहे हैं। नदी, नाला, तालाब, पोखरा और कुआं- सभी अतिक्रमण का शिकार हो रहे हैं। आज भी हम बारिश की बूंदों को सहेजने में सफल नहीं हो पा रहे है।

भूमिगत जल स्तर को बनाए रखने के लिए बारिश की हर बूंद क८ो धरती के गर्भ तक पहुंचाना आवश्यक है। गरमी के मौसम में देश के कई हिस्सों से जल संकट की डरावनी तस्वीर सामने आती है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के इक्कीस बड़े शहर ‘जीरो भूजल स्तर’ के बेहद करीब पहुंच चुका है। देश की बारह प्रतिशत जनता को अभी भी पानी सुलभ नही है।

जल संरक्षण आज सबसे ज्वलंत मुद्दा बन चुका है। सिर्फ सरकारी कानून से इस समस्या का निदान नहीं निकाला जा सकता है। जल संरक्षण के लिए हर नागरिक को अपने स्तर से प्रयास करने होंगे। बच्चों में जागरूकता लाने के लिए जल संरक्षण उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा ह७ोना चाहिए। अगर हम अपने आने वाली पीढ़ी के लिए जल नही बचाएंगे, तो वे किस हाल में होंगे, या होंगे या नहीं, इसके बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
’हिमांशु शेखर, गया, बिहार</p>

दायरों में समाज

प्राचीन दिनों में अपराधियों को दंडित करने के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। समय बीतने के साथ व्यवस्था बदली और बलात्कार नाम की बुराई को मिटाने के लिए कानून बने, पर बलात्कार के मामले कम नहीं हुए। निर्भया मामले के बाद कानून में जबर्दस्त बदलाव आया और लोगों ने पुलिस थानों में मामले दर्ज कराने शुरू कर दिए।

पहले कई लोग समाज में सम्मान की हानि के डर के कारण ऐसे मामलों में एफआइआर दर्ज नहीं कराते थे, लेकिन अब काफी लड़कियां और उनके परिवार जागरूक हुए हैं और बलात्कार के मामले भी दर्ज किए जा रहे हैं। लेकिन इस मसले का समाधान जितना कानून में छिपा हुआ है, उतना ही सामाजिक पैमानों और दायरों में भी। इशालिए समूचे समाज को इस मसले पर गंभीरता सो सोचना होगा।
’नरेंद्र कुमार, भुंजुड़ू, हिप्र

धुएं में भविष्य

आमतौर पर हर शिक्षण संस्था के बाहर ‘तंबाबू निषेध’ की सूचना लिखी होती है। ऐसा इसलिए कि तंबाकू उत्पादों के दुष्प्रभावों से विद्यार्थी और बच्चे परिचित हों। इसके अलावा इसके पैकेट पर मुंह के कैंसर का चित्र दिखा कर भी लोगों को इससे दूर रहने का संदेश दिया जाता है। इसके उलट होता यह है कि हम कहें कि यह चीज नहीं खाओ, तो लोग वही ज्यादा खाते हैं।

स्कूलों में विद्यार्थियों के पास गुटखे के पाउच मिल जाते हैं। चूंकि बाल मन जल्दी बहक जाता है, तो ये जल्दी ही बुरी आदतों से ग्रसित हो जाते हैं। अनेक शिक्षक, डॉक्टर जैसे आदर्श कहे जाने वाले व्यक्ति इसका सेवन करते हैं। जो खुद खाते हैं, वे दूसरो को कैसे रोक सकते हैं। जो लोग इस लत का शिकार ह७ो जाते हैं, वे ताउम्र मुक्त नहीं हो पाते। उन लोगों से बचने की जरूरत है जो खुद तो बुरी आदतों से ग्रसित हैं ही, दूसरे की भी आदत खराब करते हैं। सरकार यही काम करें कि तंबाकू उत्पादों पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दे।
’दिलीप गुप्ता, छोटी वमनपुरी, बरेली, उप्र