बजट से तात्पर्य होता है आगामी वर्ष के लिए प्रस्तावित आय-व्यय पत्रक। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या इस दृष्टि से संसद में रेल बजट प्रस्तुत किया गया है और क्या इसी कारण आय-व्यय के आंकड़ों पर कोई चर्चा नहीं हो रही है? रेल बजट में घोषित सुविधाओं, नई रेलों, रेल लाईनों, विद्युतीकरण आदि के आधार पर बजटीय प्रतिक्रिया देने के साथ संसाधनों की व्यवस्था कैसे होगी, यह एक गंभीर और सोचने वाला पहलू है। क्या रेलवे को परोक्ष तौर पर निजीकरण की ओर धकेला जा रहा है? गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से सरकारी गतिविधियों को देखते हुए इसकी आशंका जताई जा रही है।

रेल बजट में जिन चार नई गाड़ियों- अंत्योदय एक्सप्रेस, उदय, तेजस और हमसफर एक्सप्रेस की घोषणा की गई है, उनका मार्ग कौन-सा होगा, ये कब शुरू होंगी, इन सवालों पर मौन क्यों रखा गया है? पिछले रेल बजट में कोई नई रेल घोषित नहीं की गई थी और कहा गया था कि यह कार्य कभी भी किया जा सकता है। तो इस बार आधी-अधूरी घोषणा क्यों? माल भाड़ा और किराए में सुरेश प्रभु के दोनों बजट में वृद्धि नहीं करने को जनहितैषी निर्णय बताया जा रहा है। क्या पिछले बजट के बाद तत्काल और आरक्षण की दरों में वृद्धि नहीं की गई थी? इस वित्तीय वर्ष में एक बार फिर इस प्रवृत्ति को नहीं दोहराया जाएगा, क्या इसकी कोई गारंटी दी गई है?

अंतरराष्ट्रीय बाजार में जब कच्चे तेल की कीमतों में सत्तर प्रतिशत की कमी हुई है तो किराया और माल भाड़ा वृद्धि का कोई तार्किक आधार पहले ही नहीं था, यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए। नई रेल लाईनों और आमान परिवर्तन की घोषणा के साथ उनके पूरा करने की अवधि की भी घोषणा होनी चाहिए थी। याद रहे कि आदिवासी क्षेत्र के लिए इंदौर-दाहोद रेल लाईन का शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था, जिसके लगभग दस वर्ष बाद भी दूर-दूर तक पूरा होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

बुलेट ट्रेन, द्रुतगति के ट्रेन आदि के पहले सुदूर आदिवासी अंचलों को रेल से जोड़ने, आमान परिवर्तन और खराब ट्रैक को बदलने को प्राथमिकता देना चाहिए। भारतीय रेल आमजन की आशा, आकांक्षा और विश्वास का प्रतीक है। इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष निजीकरण से बचना चाहिए। (सुरेश उपाध्याय, इंदौर, मप्र)

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शिक्षा का कारोबार
आज भारत में शिक्षा का कारोबार किया जा रहा है, बेचा जा रहा है। दूसरी तरफ भारत सरकार हरेक नागरिक को शिक्षा देने का वादा और दावा करती है और हर साल शिक्षा अभियान चलाती है। भारत को प्रगतिशील देश से विकसित देशों को श्रेणी में शामिल करने के लिए बेहतरीन शिक्षा अनिवार्य है। इसके लिए देश में स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों का निर्माण किया गया है। लेकिन ये सभी प्रयास नाकाफी हैं। भारत में शिक्षा पाना अब महंगा होता जा रहा है। सरकार द्वारा प्रयास किया जाना चाहिए कि हर बच्चे को निशुल्क शिक्षा मिले।

वर्तमान समय में शिक्षा पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है। वे कहीं पर भी जाकर शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। साधन संपन्न लोगों द्वारा स्कूलों, कॉलेजों का निर्माण किया जा रहा है। ऐसे व्यक्ति शिक्षा को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं। अपने व्यवसाय को बढ़ावा दे रहे हैं। अगर शिक्षा माफिया ऐसे ही खिलावाड़ करते रहे तो हमारी शिक्षा पद्धति क्षीण हो जाएगी, जिसके चलते भारत वर्ष में आधी से ज्यादा जनसंख्या अनपढ़ होने के शिकंजे में पड़ी रहे।

दूसरी तरफ, केंद्र सरकार स्त्री शिक्षा पर बल दे रही है। स्त्री तो पहले से ही यातनाओं में जकड़ी हुई है। वह आर्थिक रूप से कमजोर है, उनके लिए निशुल्क शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन शिक्षा की बोलियां लगाई जाती है जो सबसे बड़ा खरीददार है उसको प्रवेश दे दिया जाता है। एक तरफ एक गरीब है जो उच्च शिक्षा के सपने देखता है परंतु आर्थिक कमजोरी के कारण यह सपना ही बन कर रह जाता है।

अगर शिक्षा का ये बाजारीकरण यों ही चलता रहा तो देश का विकास रुक जाएगा। आज महगांई, बेरोजगारी एक भयावह समस्या की तरह बढ़ती ही जा रही है। आज का युवा रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है। महंगाई के कारण वह बच्चों का पालन पोषण ठीक ढंग से नहीं कर पाता है। सरकार को चाहिए कि वह कम फीस वसूले की व्यवस्था करे, ताकि गरीब लोग भी शिक्षा प्राप्त कर सकें। नई शिक्षा पद्धति में बदलाव कर कुछ सीटें गरीबों के लिए निर्धारित की जाएं। (सलोनी मंढाण, यमुनानगर)

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बेलगाम परदा
टीवी चैनलों में खबरों को परोसने की जल्दबाजी खतरनाक होती जा रही है। जेएनयू मामले में एक वीडियो की बिना जांच-पड़ताल किए देश में विद्रोह का माहौल बना दिया गया। और तो और, कई दिनों तक एंकर चिल्ला-चिल्ला कर दर्शकों में आक्रोश पैदा करते रहे। लग रहा था जैसे देश से आह्वाान कर रहे हों कि वक्त आ गया है उठ खड़े होने का। सवाल यह है कि क्या वे अपनी देशभक्ति साबित कर रहे थे या लोगों को देशद्रोह का सर्टिफिकेट बांट रहे थे?

यह पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी नेपाल में भूकम्प जैसी गंभीर घटनाओं के दौरान भी जल्दीबाजी में भी ऐसी खबरें बनाई गर्इं। अनेक उदाहरण हैं। लोग अखबार या टीवी चैनल इसलिए खोलते हैं, ताकि खबरों को सही नजरिए से देख सकें। लेकिन जो हालत है, उसे देखते हुए क्या सोशल मीडिया को बेहतर नहीं कहा जाएगा? मीडिया को अपनी भूमिका तय करनी होगी, वरना लोग टीवी देखना बंद कर देंगे। बिना सत्य-तथ्य की जांच किए महज खबरें परोस कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना खतरनाक हो सकता है। मीडिया का काम सिर्फ खबरें देना नहीं है। खबरों से समाज की दिशा और दशा तय करना भी है। (विनय कुमार, आइआइएमसी, नई दिल्ली)

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जय हो!
‘जय हो प्रभु’! रेल बजट में मंत्री सुरेश प्रभु ने किसी भी तरह का यात्री किराया नहीं बढ़ाया, इसलिए जनता उनकी जय-जयकार करने से नहीं चूक रही है। अब बारी ‘जय हो जेटली’ की है, अगर उन्होंने भी आम जनता की सुन ली तो! (देवेंद्र नैनवा, इंदौर, मप्र)