भारत की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पीछे यह तर्क दिया गया था कि इससे देश में रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे और सभी छोटे-बड़े उद्योगों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आएगा। कुछ स्थितियां बदली होंगी, लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह सुधार और विकास देश के महज कुछ लोगों और उद्योगों तक सीमित रहा है। भारत में आर्थिक सुधारों को लागू हुए पच्चीस वर्ष से भी ज्यादा समय हो गए है। मसलन, देश का एक बड़ा तबका (किसान, मजदूर सहित अन्य) आज भी मुफलिसी में जीने को मजबूर है। सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण रिर्पोट के अनुसार, ‘गरीबी ने आज भी देश के तीस फीसद आबादी को अपने चंगुल में जकड़ रखा है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से कई योजनाएं चलाई जाने बाद भी इनकी हालत जस की तस है। यह सवाल उठना लाजिमी है कि इन योजनाओं का भारी-भरकम बजट आखिर जाता कहां है!

गौरतलब है कि योजनाएं तो बना दी जाती हैं, लेकिन उचित निगरानी के अभाव में भ्रष्ट तंत्र का शिकार हो जाती हैं। दूसरी तरफ नौकरशाही के ढुलमुल रवैए से योजना राशि की लूट-खसोट कर फाइलों में लीपापोती कर दी जाती है। भारत की ग्रामीण जनसंख्या में सत्तर प्रतिशत लोग सीधे तौर पर मानव श्रम पर निर्भर है। दुर्भाग्य यह है कि इनकी आय का एकमात्र स्रोत यही है। कृषि संबंधी कार्य और अन्य रोजगार के साधन सीमित और मौसमी होते हैं। मौसम बीतने के बाद लोग बेरोजगारी और बेबसी में जीने को मजबूर होते हैं। इसलिए जरूरी है कि अपात्रों को लाभ देने वालों और दस्तावेजों में हेरफेर कर धन हड़पले वालों को बख्शा नहीं जाए। योजनाओं को समान और पारदर्शिता से संचालित करने के लिए सरकार को समय-समय पर निगरानी और उससे प्राप्त आकड़ों पर गौर करने की आवश्यकता है, जिससे पात्र और जरूरतमंदों को लाभ मिले और आर्थिक विषमता की खाई पाटी जा सके। (पवन कुमार मौर्य, वाराणसी)
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भरोसे के दस्तावेज

अगर भारत सरकार पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया और नियमों का सरलीकरण कर रही है तो यह स्वागतयोग्य है। इससे संबंधित नियमों और प्रक्रिया का सरलीकरण होना ही चाहिए। लेकिन केवल इसी काम में नहीं, बल्कि जनता से जुड़े हर काम में लालफीताशाही के अवसरों को जितना कम किया जा सकता है, किया जाए। लेकिन इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि पासपोर्ट एक अहम दस्तावेज होता है। वह किसी स्कूल या गली-मोहल्ले के किसी क्लब के परिचय-पत्र जैसा नहीं है।

वह ऐसा दस्तावेज है, जिसे लेकर कोई भी व्यक्ति विदेश जाता है। वहां उसी के आधार पर उसके साथ-साथ भारत और भारतीयों की प्रतिष्ठा आंकी जाती है। हमारे यहां वोटर आइडी कैसे बनते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। नाम किसी का, फोटो किसी की और पता किसी का। इस तरह के प्रकरण अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि विभाग ने इस सरलीकरण में भी एहतियात तो बरती होगी। सामान्य तौर पर पासपोर्ट बनने में डेढ़ माह तक का वक्त लग जाता है। इसलिए नियम प्रक्रिया का सरलीकरण होना चाहिए, लेकिन ‘पासपोर्ट’ नामक दस्तावेज की जो पहचान और प्रतिष्ठा है, वह बनी रहे। वोटर आइडी कार्ड जैसे जरूरी कागजात फर्जी बनवा लेने का दावा कोई भी कर लेगा, लेकिन फर्जी पासपोर्ट बनवा लेने का दावा कोई बहुत आसानी से नहीं कर पाएगा। (शुभम सोनी, इछावर, मध्यप्रदेश)
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अंकों का बोझ

यह अफसोस की बात है कि हमाारी मौजूदा परीक्षा प्रणाली एक समस्या बन गई है, क्योंकि परीक्षा के अंक ही हमारे बच्चों का भविष्य तय करते हैं। बकौल जॉन हाल्ट, ये अंक अवसरों की दुनिया में प्रवेश के टिकट हैं। परीक्षा में लाए गए अंक और भावी अवसरों का सीधा संबंध है। सभी माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों के अधिकतम अंक आएं। इसके लिए वे बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजते है और ट्यूशन-कोचिंग भी दिलाते हैं। कुछ समय बाद बच्चे भी नंबरों की अहमियत समझ कर, अंकों की चूहा-दौड़ में शामिल हो जाते हैं।

बच्चों को हमेशा यह आशंका सताती है कि अगर नंबर कम आए तो उन्हें अच्छे स्कूल या कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा। परीक्षा अवधि के उन पंद्रह-बीस घंटों में चंद पन्नों पर आप क्या लिखते हैं, उससे आगे के रास्ते निर्धारित होने लगते हैं। परिणामस्वरूप बच्चे तनावग्रस्त होने लगते हैं। यह दबाव सिर्फ बोर्ड परीक्षाओं में नहीं होता, बल्कि हास्यास्पद तो यह है कि नर्सरी वगैरह में भी बच्चे और अभिभावक तनाव में होते हैं। परीक्षा की तलवार के साए में कुछ भी सीखना संभव नहीं है। दुखद तो यह है कि हमारी बाल प्रतिभाएं अंकों के पहाड़ के नीचे दबती चली जा रही हैं। इसलिए परीक्षा प्रणाली में सुधार की बहुत आवश्यकता है। (रमेश शर्मा, केशवपुरम, दिल्ली)
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विवाद प्रियता

हमेशा विवादों में रहने बाले सुब्रमण्यन स्वामी ने टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लेकर नेशनल हेराल्ड तक के मुद्दे पर कांग्रेस को लगातार कठघरे में खड़ा किया है। थोड़े समय पहले वे राम मंदिर का निर्माण दिसंबर में होगा, यह कह कर विवादों में थे। और अब वे असहिष्णुता के विवाद में घिरे आमिर खान के पीछे पड़ गए। स्वामी ने कहा कि आमिर ने फिल्म ‘पीके’ के प्रचार के लिए आइएसआइ से सांठगांठ की थी। आमिर खान को हाल ही में ‘अतुल्य भारत’ के ब्रांड एंबेसडर से हटा दिया गया। अब देखना यह है कि स्वामी का अगला निशाना कौन होता है। (प्रखर वार्ष्णेय, गाजियाबाद)
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अनुचित मांग
हमारी सरकार ने जनता से अच्छे दिनों का वादा किया था, जो पूरा होता नजर नहीं आ रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्टार्ट-अप इंडिया, सबसिडी-गिपअप, मेक-इन इंडिया और ऐसी कई योजनाओं की घोषणा की है, ताकि देश की अर्थव्यवस्था सुधारी जा सके। देश में बढ़ते वितीय घाटे पर खुद रिजर्व बैंक के गर्वनर रघुराम राजन चिंता व्यक्त कर चुके हैं। जहां मादी सिर्फ जरूरी सबसिडी जारी रखने की बात करते हैं, वही दूसरी ओर देश की बड़ी हस्तियों की प्रति माह पचास हजार रुपए पेंशन की मांग कहां तक वाजिब है। (तान्या सिंह, दिल्ली)