वैश्वीकरण के दौर में देश के आर्थिक विकास की रफ्तार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इससे देश का एक तबका और उद्योग लाभान्वित हुए हैं। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि देश का एक ऐसा वर्ग भी है जो बदलाव और तकनीक के युग में हाशिये पर जा रहा है। गौरतलब है कि शहरों में जितने लोग सुविधासंपन्न जीवन जी रहे हैं, उनमें से कहीं ज्यादा लोग गरीबी में जीने को मजबूर हैं। भारत में असमानता की खाई कितनी गहरी है, यह छिपा नहीं है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के हालिया रिपोर्ट के अनुसार देश के शहरों में दस फीसद परिवार ऐसे हैं, जिनके पास केवल 291 रुपए की औसत सपंत्ति है। साथ में यह भी उजागर हुआ है कि शहरी अमीरों के पास जो संपत्ति है, वह गरीब परिवारों के मुकाबले पचास हजार गुना अधिक है।

दरअसल, हाल के कुछ वर्षों में मौसम की बेरुखी और महंगाई के चलते खेती-किसानी के बिगड़ते हालात के कारण गांवों से बड़ी संख्या में लोग शहरों का रुख कर रहे हैं। नतीजा शहरों में भीड़ बढ़ रही है। रोजगार की तलाश में आए अधिकतर लोग मजदूरी करते हैं। ये लोग न तो शिक्षित होते हैं और न ही इन्हें कोई प्रशिक्षण दिया जाता है। इसलिए इनका जीवन सिर्फ आजीविका कमाने में निकल जाता है। शहरों में इनके हिस्से सिर्फ बदहाली का जीवन ही आता है।

औद्योगिक क्षेत्रों के आसपास ये मेहनतकश लोग रहते हैं, जो मलिन होने के साथ-साथ स्वच्छ जल, साफ हवा, चिकित्सा, शिक्षा और बिजली आदि मूलभूत सुविधाओं के अभाव में बेबसी में जीवन काट रहे हैं। इस मामले पर सरकार और स्थानीय निकाय को इनके बेहतरी के लिए पहल करनी चाहिए। शहरी गरीबों के विकास के लिए खाका खींचा जाए और उसे हकीकत में उतारा जाए। शहरी विकास और नियोजन में इन्हें हाशिये पर न रखा जाए।
’पवन कुमार मौर्य, वाराणसी</p>