बहुत से आदिवासी लेखक झारखंड और देश के अलग-अलग प्रदेशों में बैठकर अपने समाज, साहित्य और संस्कृति को लेकर दिन-रात कलम घिस रहे हैं। ऐसे लेखकों को बुलाना दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले या इसके संचालकों को अपमान-सा लगता है।

साहित्य की राजनीति देखिए, मेले में वही लेखक, लेखक मंच या अन्य जगहों पर कब्जा जमाए हुए हैं जो हर मंच, हर सेमिनार से एक ही बात को दोहराते फिरते हैं। यह उनका ‘मैनेजमेंट’ नहीं तो और क्या है जिसमें ये वर्चस्ववादी लेखक आगे हैं और झारखंड और दूसरे प्रदेशों का आदिवासी लेखक अपनी आदिवासियत के चलते उनसे कोसों दूर है!

अब सवाल है कि साहित्य में वर्चस्ववाद की राजनीति के चलते उस आदिवासी लेखक, समाज, साहित्य और संस्कृति के साथ कैसे न्याय हो पाएगा?

 

बन्ना राम मीना, दिल्ली विश्वविद्यालय

 

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