इस बीच प्रधानमंत्री के मुख से कुछ ऐसी बातें निकली हैं जिनका मतलब शायद चुनावी सियासत ही अच्छे से समझा पाए। सबसे आश्चर्यजनक और आकर्षक था किसी फिल्मी हीरो के अंदाज में आकर कहना कि अगर गोली चलानी है तो मुझ पर चलाओ, मेरे दलित भाइयों पर नहीं! भारतीय राजनीति की रपटीली राहों से अछूते व्यक्ति को यह बात काफी रास भी आएगी। लेकिन भारतीय राजनीति से परिचित व्यक्ति को इसमें सियासत की आंच पर सियासी रोटी सिंकती नजर आएगी।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी, मुद्दा गोली मारने का नहीं है। गोली से तो सिर्फ शरीर मरता है, मुद्दा यहां आत्मा के बार-बार मरने का है। यहां किसी व्यक्ति की बात नहीं हो रही है। किसी से छुपा नहीं है कि यह गोली आम बंदूक से नहीं, बल्कि हजारों सालों से चली आ रही परंपराओं की दुनाली से निकलती है। इसे चलाने वाली अंगुलियां शास्त्रों से अपनी ऊर्जा लेती हैं। और बड़े फख्र से एक जातिवादी मस्तिष्क इस क्रूरता के तांडव का लुफ्त उठाता है।
‘गोली मुझ पर’ चलाने का आग्रह बेहद लोकलुभावन लगता है। और है भी। और हुड़दंगी राष्ट्रवाद के कई तत्त्व इसका बढ़-चढ़ कर प्रचार भी कर रहे हैं। उनके मुताबिक पहली बार किसी नेता ने ऐसी बात कही है। गोली मुझ पर चलाओ कथन सुनते ही मेरे दिमाग में गांधी की स्मृति आ गई थी। आज जिस नगालैंड के बारे में अक्सर हमें इंसर्जेंसी नाम की गतिविधियों के जरिये पता चलता है दरअसल, उसी नगालैंड से संबंधित बात, गांधी ने गोली के माध्यम से कही थी। जब सारा राष्ट्र आजादी के आने वाले जश्न में डूबा हुआ था तब नगा लोग गांधीजी से मिलने दिल्ली आए थे। उन्होंने बापू से निवेदन किया कि हम भारत से अलग रहना चाहते हैं, और भारत हमें जबरदस्ती अपने साथ लेना चाहता है। तब गांधी ने कहा था, मेरे भाइयो, मैं चाहता हूं तुम मेरे साथ रहो। पर अगर तुम्हें नहीं रहना, तो तुम्हारे सामने चलने वाली पहली गोली के बीच मैं खड़ा होऊंगा। जो बात गांधी ने गोली के संबंध में कही, वह सियासत के मुंह पर करारा तमाचा था। पर प्रधानमंत्रीजी की गोली खाने की बात सियासत के गले में माला डालने से कम नहीं।
’आदित्य, जेएनयू, नई दिल्ली</p>

