किसानों की वेदना और चेहरे पर झलकती उदासी बेशक लोगों को दुखी कर रही हैं। सरकार और किसान संगठनों के बीच अब तक हुई बैठकों का कोई नतीजा नहीं निकलने के बावजूद किसानों के तेवर और तल्ख होते जा रहे हैं। किसान अन्न उपजाते हैं तभी तो हमारी खाने की मेज सजती है। भारत 1947 में आजाद हुआ था और 1950 में लागू हुए संविधान में भारत को एक लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया था।

इसका मतलब है कि एक ऐसा देश जहां जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन होता है। बहरहाल ऐसी ही व्यस्था 2300 साल पहले ग्रीस की राजधानी एथेंस में भी थी, जिसे लोकतंत्र का जन्म स्थल माना जाता है लेकिन एथेंस में लोकतंत्र अपने शुरूआती दौर में ही इतना विकृत हो गया था कि लोकतंत्र और जनता के फैसले की आड़ में सुकरात जैसे दार्शनिक को मौत की सजा दे दी गई थी। तब सुकरात ने इसे लोकतंत्र की खामी बताया था।

भारत में आज सरकार शायद अपनी बात किसानों को ठीक से समझा नहीं पा रही है और किसानों के बीच भी कई ऐसे नेताओं की कमी साफ दिखाई दे रही है जो बातचीत से ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकें जो सबके लिए मान्य हो, जिसमें सबका साथ सबका विकास हो और किसान आंदोलन में राजनीतिक पार्टियां सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए कृषक के साथ खड़ी हैं, ताकि आने वाले चुनाव में जीत हासिल कर सकें। लेकिन चुनाव जीतना ही सिर्फ लोकतंत्र नहीं है, बल्कि लोगों द्वारा अपनी सूझ-बूझ से वोट डालना असली लोकतंत्र है।
’निधि जैन, लोनी, गाजियाबाद

मिलावट का खेल

इंसान की अच्छी सेहत के लिए शुद्ध, सात्विक खानपान होना अनिवार्य माना गया है। लेकिन अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में खानपान की वस्तुओं में मिलावट का धंधा पूरे जोरों पर है। जब इंसान को मिलावट वाली अशुद्ध चीजें खाने को मिलेंगी तो सोचा जा सकता है कि सेहत पर कितना बुरा असर पड़ेगा। सरकार द्वारा इतना शिकंजा कसने के बाद भी खानपान की वस्तुओं में मिलावट खोरी का धंधा जोरों पर है।

क्या खाद्य वस्तुओं में मिलावट करने वाले उद्योगों व मिलावट पूर्ण चीज बेचन वाले दुकानदार अपने मुनाफे के लिए खुल्लम खुल्ला जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ कर देशद्रोह नहीं कर रहे हैं? क्यों न इनके खिलाफ देशद्रोह की धाराओं के अंतर्गत मामले दर्ज कर सख्त दंड दिया जाना चाहिए?
’हेमा हरि उपाध्याय, खाचरोद (उज्जैन)

मदद की दरकार

पूर्णबंदी के बाद से ही निजी स्कूलों का स्टाफ, प्रबंधक, पालक और छात्र कोरोना के दंश से किसी न किसी तरह परेशान हैं। कर्मचारियों की माली हालत में फिलहाल सुधार के आसार इसलिए नहीं लग रहे क्योंकि इनव स्कूलों के संचालकगण स्वयं ही संकट के दौर से गुजरने की बात कर रहे हैं और इसका बहाना बना कर समय पर तथा
पूरा वेतन भुगतान नहीं कर रहे हैं। अपनी इस व्यथा को शिक्षक कहां सुनाएं और कैसे समाधान कराएं, समझना मुश्किल है।

स्थिति यह है कि कुछ शिक्षकों ने परेशान होकर नौकरी छोड़ दूसरा कामकाज या दूसरी नौकरी शुरू कर दी। ऐसे शिक्षक भी हैं जिन्हें अन्य काम अनिच्छा से करने को मजबूर होना पड़ रहा है। यहां तक कि मजदूरी और ठेला चलाने तक का काम करना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार को निजी स्कूलों के कारोबार को बचाने के लिए उचित पैकेज के बारे में विचार करना चाहिए।
’बीएल शर्मा “अकिंचन”, तराना (उज्जैन)