विश्व आर्थिक मंच के हाल ही में जारी मानव पूंजी सूचकांक में एक सौ तीस देशों की सूची में भारत एक सौ पांचवें क्रम पर है। यह खेद और आश्चर्य की बात है कि विश्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और विकास दर के बड़े-बड़े दावों के बावजूद मानव पूंजी सूचकांक में हमारा क्रम बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका जैसे हमारे पड़ोसी देशों सहित कई अफ्रीकी और खाड़ी के देशों से पीछे है। अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और यूरोप के देशों से तुलनात्मक रूप से तो हमारा क्रम बाद में है ही, अलबत्ता पाकिस्तान हमसे पीछे है यह जानकर हम संतुष्ट हो सकते हैं! किसी भी देश में अपने नागरिकों के पालन-पोषण, शिक्षण-प्रशिक्षण, विकास और प्रतिभाओं के उपयोग के आधार पर जारी इस सूचकांक रिपोर्ट का खासा महत्त्व होना चाहिए। वास्तव में ऐसी रिपोर्ट हमारे लिए आईने का काम करती है, हमारे सामने उन सच्चाइयों को उभारती है जिन्हे व्यवस्था ढकने व छुपाने की कोशिश करती है। हमारे समाज के विकार, विद्रुपता व विषमता के कारणों को परोक्ष तौर पर इस तरह की रिपोर्ट रेखांकित करती है।

इस रिपोर्ट की रोशनी में हमें अपने विकास की नीतियों, दावों और उपलब्धियों का वस्तुनिष्ठ ढंग से अध्ययन, आकलन और विश्लेषण कर गंभीरता से प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस होनी चाहिए। लेकिन व्यापक स्तर पर इसके संकेत कहीं नजर नहीं आते हैं। प्रिंट मीडिया में कहीं छोटी-सी रिपोर्ट देखने में आ जाए, कुछ व्यक्तिगत या संस्थागत समूह चर्चा हो जाए और अगली रिपोर्ट तक एजेंडा स्थगित हो जाता है।

मानव पूंजी सूचकांक हमें बताता है कि भूखमरी, कुपोषण, रक्ताल्पता सहित साध्य और असाध्य रोगों, गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा से निजात के लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। बाजार आधारित आर्थिक नीतियों के दौर में लोककल्याण के एजेंडे के लगातार छीजने से निर्धनों और वंचितों के लिए तो बुनियादी सुविधाएं प्राप्त करना कल्पनालोक की बात हो गई है। जो शिक्षा अधिकार कानून बनाया गया है वह विसंगतियों से भरा है और निजी शिक्षण संस्थाओं को अप्रत्यक्ष फंडिंग का काम कर रहा है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं बेहाल हैं और निजी व नैगमिक चिकित्सालयों का खर्च आमजन के बस की बात नहीं है।

शिक्षा और स्वास्थ्य राज्य के विषय हैं लेकिन अधिकतर राज्यों की आज तक शिक्षा और स्वास्थ्य नीति ही नहीं बनी है। सबसे पहले प्रत्येक राज्य को अपनी जरूरत के अनुकूल शिक्षा और स्वास्थ्य नीति का निर्माण करना चाहिए और सबको गुणवत्तापूर्ण और वहनीय शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों, यह सुनिश्चित करना चाहिए। सबको भोजन के अधिकार के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुगम, सुलभ और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की आवश्यकता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और भोजन में स्वावलंबी बनाने के लिए रोजगार की गारंटी सुनिश्चित होनी चाहिए। शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत और स्वास्थ्य के लिए सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत आबंटन सुनिश्चित करना चाहिए।
’सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर</p>