देशभर में विकास चल रहा है तो आंकड़ों की बैसाखियों पर, भले ही उन आंकड़ों में वास्तविकता हो या नहीं! राजनीति में यह एक पुरानी रिवायत-सी बन गई है। आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर सरकार के पक्ष में माहौल बनाने के लिए विकास को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। एक सरकार दूसरी सरकार से अलग हट कर लोगों के सामने नई-नई योजनाओं से भरी थाली परोसती है। भले ही योजना पुरानी ही हो, लेकिन उसे नई चाशनी में डुबो कर बढ़ा-चढ़ा कर नया बताया जाता है। सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। करोड़ों रुपए खर्च करके जो योजनाएं शुरू की जाती हैं, वही योजनाएं या उनकी उपयोगिता आम आदमी की पहुंच से बाहर होती हैं।

इस सबका असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, जिसमें कमजोरी का असर अमूमन हर क्षेत्र पर पड़ता है। लेकिन हकीकत की अनदेखी की जाती है। बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सर्वे के मुताबिक पिछले दस सालों में लाखों किसानों ने खेती छोड़ दी है। जो बचे हैं, वे घाटे और इस पेशे में दम घुटने के बाद भी मजबूरी में बने हुए हैं। सवाल है कि क्या देश भर में गरीबी, शिक्षा, किसानों आदि के नाम पर चलाई जाने वाली अनेक योजनाएं वास्तव में जनता के लिए उपयोगी हैं?

दूसरी ओर, विकास के नाम का ढिंढोरा पीटा जाता है। क्या विकास होगा और कब तक? जवाब दिया जाता है कि 2022 तक। सवाल है कि 2022 में क्या होने वाला है! आज हर तरह के काम महज आंकड़ों के हिस्से बन रहे हैं। जब इतने बड़े-बड़े आंकड़ों का महाजाल फैलाया जाता है तब भी विकास क्यों नहीं नजर आता? आज देश की परिस्थितियों से यही पता चलता है कि आंकड़े सुधार के बरक्स हैं। जब आंकड़े अड्डे मात्र रह जाते हैं, तब इनका तांडव आश्चर्य में डालता है। इसलिए देश में सरकार को आंकड़ों का जाल फेंकने की नहीं, सुधार की सख्त जरूरत है।
जालाराम चौधरी, बाड़मेर, राजस्थान</p>