नरेंद्र मोदी सरकार की जगाई उम्मीदें अब मुरझा रही हैं। उसने जिस विकास के सपने दिखाए थे, वे दरअसल चंद अरबपतियों के खजाने भरने का सबब बने हैं। आम लोगों को न रोजगार मिला और न महंगाई कम हुई। मनमौजी विदेश भ्रमण और निवेश के लिए ढोलकबाजी युवाओं के लिए केवल झांसेबाजी साबित हुई। महंगाई से गरीबों के कटते पेट की कौन सुने! यहां तो आमजन की घटती क्रयशक्ति से बाजार की भी हालत पतली हो गई। शेयर बाजार हो या धातु बाजार या फिर भूमि-भवन का संपदा बाजार, गिरावट से है लगातार दो-चार। घटा निर्यात एक-तिहाई, रुपए की भी आफत आई। डॉलर की तुलना में अपनी सामर्थ्य और गंवाई। जहां दाल बन गई सूप, खाने का तेल और वसा भी हाथ से गए छूट। लुटती-पीटती जनता की स्थिति निरंतर बेहाल बनी हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटता रहा कच्चा तेल, पर बाजार भाव पर नहीं मिला जनता को सस्ता तेल। कहां गई ‘बाजार’ की होड़ लड़ाई? कैसे करें हम इनकी बड़ाई? (रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर)

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मजहबी चेहरा

पश्चिम बंगाल के मालदा में लाखों की भीड़ ने विरोध के लिए हिंसा का सहारा लेकर अराजक स्थिति पैदा कर दी। इससे क्या स्पष्ट हो रहा है? जिस प्रकार दादरी कांड, मांस बिक्री पर प्रतिबंध जैसे मुद्दों पर असहिष्णुता का रोना रोने वाले ढोल पीट रहे थे, अब क्यों मौन का चादर ओढ़े हुए हैं। यह देखने-समझने वाली बात है। समाज को सहिष्णुता-असहिष्णुता, सेक्युलरिज्म-गैर-सेक्युलरिज्म में बांटने वाले इन कट््टर लोगों से कौन-सी शिक्षा मिल रही है?

मालदा की घटना इस्लामी तालीम का नतीजा तो नहीं है। बचपन से यही सुनने-पढ़ने को मिलता रहा है कि मुहम्मद साहब अमन पसंद थे। वे हदीश में कहते हैं कि शांति बड़ी ताकत है। क्या यह सिर्फ किताबी जुमला बन कर रहा गया है?
कमलेश तिवारी जैसे लोगों के टिपण्णी से इस्लाम पर आंच आने वाली नहीं है। ऐसा वर्ग खुद साबित कर दे रहा है कि वह कितना असहिष्णु है। विरोध करना हक है, पर देश की एकता, समरसता में जहर फैलाना भी तो उचित नहीं है। धर्म के ठेकेदारों द्वारा जिस प्रकार का माहौल तैयार किया जा रहा है, वह कोई शुभ संकेत नहीं है।

दादरी, मालदा जैसी घटनाएं ऐसे लोगों की मानसिक उपज होती हैं, जो सही को गलत और गलत को सही ठहराते रहे हैं। जितना जिम्मेदार ये कट्टर लोग हैं, उतने ही वे लोग भी हैं, जो बिना सोचे-विचारे भीड़ की शक्ल में विरोध करने सड़कों पर निकल पड़ते हैं। (तौफीक अहमद, मुस्तफापुर, चंदौली)

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आंसू नहीं, मोती

ऐसा नहीं कि पहली बार उनकी आंखें नम हुर्इं। मगर इस बार दुनिया के ‘सबसे ताकतवर’ व्यक्ति, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की आंखें वहां हो रही हिंसा के बारे में सोच कर भर आर्इं। अमेरिका में हर नागरिक को आत्मरक्षा के लिए बंदूक खरीदने और रखने का अधिकार संविधान द्वारा मिला है। इसलिए वहां बंदूक आदि शस्त्र खरीदने के लिए लाइसेंस या अनुमति प्राप्त करने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन पिछले कई सालों से वहां बंदूकधारियों, जिनमें किशोरों की बड़ी संख्या है, द्वारा निरपराध-निर्दोष नागरिकों पर गोली चलाने की अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं। ओबामा ऐसी घटनाओं से विचलित हैं और बंदूक रखने के कानूनी प्रावधान को बदलना चाहते हैं। लेकिन अमेरिकी संसद में बंदूक समर्थकों के कारण उनके प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिल पा रहा। पर ओबामा ने कहा है कि वे अपनी विशेष कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कानून में बदलाव करेंगे।

देश-समाज में शांति और सुरक्षा की भावना केवल शस्त्रों के बूते नहीं आ सकती। अनेक मामलों में तो इनसे असुरक्षा और डर पैदा होता है। नहीं तो क्या कारण है कि भारत, अमेरिका, यूरोप के ताकतवर देशों में इतने शक्तिशाली और अत्याधुनिक हथियारों के होते हुए भी आज असुरक्षा और डर इस सीमा तक बढ़ा हुआ है? आम नागरिकों के मन में सुरक्षा की भावना शस्त्रों के बजाय आपस में एक-दूसरे की मदद करने, मुसीबत के समय पास-पड़ोस के लोगों, मित्रों, सहकर्मियों, सरकार और आसपास के अनजान लोगों से सहयोग पाने की उम्मीद से आती है। एक स्वस्थ और एकजुट समुदाय ही सचमुच आत्मसुरक्षा की भावना पैदा करता है। लेकिन दुर्भाग्यवश समाज यह अमोघ अस्त्र खो रहा है। (कमल जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड)

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स्त्री की उड़ान

भारत पुरुष प्रधान देश है, बावजूद इसके महिलाएं पुरुषों की तुलना में कहीं कम नहीं हैं। देश की आधी आबादी ने देश के उच्च पदों पर स्थापित होकर साबित कर दिया कि वे पुरुषों से कम नही हैं। अब वे देश की सुरक्षा की भी जिम्मेवारी उठाएंगी। रक्षा मंत्रालय के निर्णय के अनुसार अब महिलाएं भी वायु सेना का विमान उड़ाएंगी। महिला पायलट का चयन वायु सेना अकादमी में प्रशिक्षण ले रही महिला अधिकारियों में से होगा। सरकार का यह निर्णय सराहनीय है। (प्रताप तिवारी, सारठ, झारखंड)

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नापाक मंसूबे

जब भारत और पाकिस्तान जमी धूल साफ करने के लिए कोई कदम बढ़ाते हैं, तभी भारत आतंकी हमले का निशाना बनता है। लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा आदि पाकिस्तान में पलने वाले संगठन ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। पाकिस्तान में आतंकियों के आका खुलेआम घूमते और भारत को खुली धमकी देते हैं। इससे जरूर पाकिस्तान की सेना का सीना चौड़ा होता होगा, जो आतंकियों को सुनियोजित तरीके से भारत के लिए इस्तामेल करती है। पाकिस्तान के आतंकी संगठन वहां की खुफियां एजेंसी आइएसआइ के इशारों पर काम करते हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तानी हुकूमत का असली चेहरा वहां की सेना है। निस्संदेह पठानकोट हमला पाक सेना की मिलीभगत है।

इस हमले के बाद एक बार फिर भारत-पाकिस्तान वार्ता टालनी पड़ी है। ऐसी स्थिति में भारत सरकार पाकिस्तान के साथ वार्ता करेगी भी तो असंभव है कि इसका कोई सुखद परिणाम निकले। और न यह सही होगा कि भारत इस वार्ता को रद्द कर दे। ऐसे कदम से आतंकवादियों का मनोबल बढ़ेगा। इसलिए भारत तो आतंकवाद पर चर्चा करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ नहीं, क्योंकि वे सेना प्रमुख राहील शरीफ के दबाव में हैं। ऐसी स्थिति में भारत को पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता से किसी नतीजे की उम्मीद बेमानी है। (पंकज भारत, मेरठ)