पंजाब के ज्यादातर किसान गेहूं और धान की खेती करते हैं। इन दोनों फसलों पर एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है और सरकारी खरीद की गारंटी भी। इन दोनों फसलों की कामयाबी ने उसके सामने ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है कि वह चाह कर भी इससे बाहर नहीं निकल पा रहा। हालांकि गेहूं-धान की खेती के अलावा उन्हें किसी और फसल की अकसर सही कीमत नहीं मिलती और न ही उसके बारे में उनके पास बहुत जानकारी होती है।
2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार, भारत के छियासी फीसद किसानों के पास छोटी जोत की जमीन है या ये वे किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है। इसलिए किसान सालों से चली आ रही गेहूं-धान जैसी परंपरागत फसलों को ही उगाते आ रहे हैं, जो हर मौसम में रिस्क नहीं ले सकते। खेती के इस परंपरागत द्विफसल तंत्र को ‘मोनोकल्चर’ कहा जाता है।
पंजाब में 1970-71 में धान की खेती 3.9 लाख हेक्टेयर में होती थी, वह 2018-19 में इकतीस लाख हेक्टेयर में होने लगी। यानी पांच दशक में आठ गुणा बढ़ोतरी। उसी तरह 1970-71 में 22.99 लाख हेक्टेयर में गेहूं की खेती होती थी। 2018-19 में यह बढ़ कर 35.20 लाख हेक्टेयर में होने लगी। यानी पांच दशक में डेढ़ गुणा बढ़ोतरी।
साल 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘मोनोकल्चर’ की वजह से पंजाब में अब फसलों की पैदावर कम हो रही है, खाद डालने के बाद भी फसलों पर फर्क कम पड़ता है, मिट्टी की गुणवत्ता कम हो गई है। इसका सीधा असर बाजार और कीमतों पर पड़ता है।
ऐसे में खेती बहुत मुनाफे का सौदा नहीं रह जाती। धान की खेती की वजह से भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है। 1970-71 में पंजाब में ट्यूबवेल की संख्या दो लाख थी जो 2018-19 में बढ़ कर चौदह लाख हो गई। यहां के बारह जिलों में, जहां धान की सबसे ज्यादा खेती होती है, वहां पिछले तीन दशक में जलस्तर 6.6 मीटर से बीस मीटर तक नीचे चला गया है। 2017-18 में पंजाब से कुल अठासी फीसद धान केंद्र सरकार ने खरीदा था।
इन्हीं वजहों से पंजाब के किसानों को लंबे समय से खेती में विविधता लाने की सलाह दी जाती रही है। हालांकि पंजाब में मुक्तसर के आसपास 2.25 लाख हेक्टेयर खेती का इलाका जरूर ऐसा है, जहां साल में ज्यादातर समय पानी भरा रहता है। यहां केवल धान की फसल ही हो सकती है। लेकिन बाकी इलाकों में कपास, मक्का, दलहन, आयलसीड, शाक-सब्जी की खेती की जा सकती है।
सरकारों और किसानों को यह बात समझ नहीं आई तो अगले पंद्रह से बीस साल में खेती में और मुश्किलें बढ़ जाएंगी। सत्तर के दशक में पंजाब में तकरीबन छियासठ फीसद खेतों में केवल गेहूं और धान की खेती होती थी। बाकी चौंतीस फीसदी में दूसरी फसलें उगाई जाती थी। लेकिन 2020 के दशक तक आते-आते नब्बे फीसद में केवल गेहूं-धान की ही खेती हो रही है। इसलिए गेहूं-धान के चक्रव्यूह से किसानों को निकलना है तो समाधान फसलों में विविधता में खोजना होगा।
’निवेदिता मलिक, मोदीनगर, गाजियाबाद, उप्र