देश में कोरोना महामारी लोगों की जीवनधारा को बुरी तरह से प्रभावित किया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस संकट के दौर में करीब सभी वर्ग, धर्म संप्रदाय के लोग प्रभावित हुए हैं और पूर्णबंदी के चलते मासूमों के सामने पेट भरने का भी संकट गहराया है। एक खबर के मुताबिक पूर्णबंदी के कारण देश में कुछ राज्यों के बच्चों की संख्या अगर मिलाएं तो एक करोड़ से ज्यादा बच्चों को स्कूल में मिलने वाला दोपहर का भोजन नहीं मिला।

कोरोना संकट के बीच देश में करोड़ों गरीब बच्चे ऐसे हैं जिन्हें स्कूल बंद होने और सरकारी लेटलतीफी के कारण मिड-डे-मिल मिलना मुश्किल हो गया। ये आंकड़े हमारी प्रसाशनिक कार्य-पद्धति की भी पोल खोलते नजर आते हैं। योजनाएं बनती तो हैं, लेकिन वास्तविकता और यथार्थ से कोसों दूर नजर आती हैं।

सुरक्षित बचपन की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजना मिड-डे मील के जब यह हाल है तो अंदाज लगाया जा सकता है कि दूसरी योजनाओं के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत क्या होगी। देश में कोरोना के बीच मासूमों के सामने पेट भरने का संकट विचारणीय और चिंतनीय है। समझ से परे यह लगता है कि आखिर योजनाओं को समय-सीमा के भीतर मूर्त रूप क्यों नहीं मिल पाता।

फाइलों की शोभा बढ़ाती ये योजनाएं दम तोड़ती क्यों नजर आती है? कहीं बच्चों के लिए पैसा नहीं आया, तो कहीं बच्चों को खाना नहीं वितरित हुआ। क्या ऐसे योजनाओं को चलाया जाएगा? पूर्णबंदी में क्या बच्चों के पेट को भी बंद मान लिया गया है?

गैरजिम्मेदारी का शिकार इन योजनाओं की ऐसी हालत में बच्चों का विकास कैसे होगा। सरकार को इन योजनाओं को अधिक ठोस तरीके से क्रियान्वयन करने के लिए और सुचारू रूप से चलाने के लिए समय-समय पर जांच करवाना चाहिए कि योजनाओं का लाभ सही मायने में संबंधित बच्चों तक पहुंच रहा है या नहीं। इसके क्या परिणाम सामने आ रहे हैं, इन पर भी अध्ययन कराना चाहिए। मात्र कागज पर योजनाओं को लागू कर देने तक से बात नहीं बनती।

उन्हें सकारात्मक रूप देने के लिए नौकरशाही की लेटलतीफी और लापरवाही या बेईमानी पर भी अंकुश होना चाहिए। समाज की सार्थकता की कल्पना तभी की जा सकती है, जब सरकार अपनी ड्यूटी, सेवाभाव और कर्तव्यों को भली-भांति पूरा करे।
’योगेश जोशी, बड़वाह, मप्र