हाल ही में भाजपा अध्यक्ष के काफिले पर जो हमला हुआ, उससे खटास का घनत्व एकाएक गहन हो गया है। इसके पहले भी तृणमूल कांग्रेस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच खून-खराबा होता रहा है। ममता बनर्जी एक ओर भाजपा के हर प्रहार का जवाब देने में कोई कसर नहीं रख रही हैं, जबकि भाजपा टीएमसी के गढ़ में सेंध लगाते हुए वह सब कुछ करने में भिड़ी हुई है, जिससे उसे आगामी सत्ता संग्राम के सिरमौर प्राप्त होने का अवसर मिल सके।
जेपी नड्डा पर हमले के प्रकरण में केंद्र ने बंगाल के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को जो फरमान जारी किया, उसे भी ममता बनर्जी ने दरकिनार कर दिया। इसके बाद केंद्र ने पश्चिम बंगाल के तीन भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों को बिना राज्य सरकार के मंतव्य के तत्काल प्रभाव से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का आदेश जारी कर दिया, जिसे भी मुख्यमंत्री ने रोक दिया। यह स्थापित नियम है कि अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के नियुक्ति के समय राज्य आबंटन के बाद उन्हें राज्य सरकारों के नियम और कृपा पर आश्रित होना पड़ता है।
करीब प्रत्येक अधिकारी को छह वर्ष की न्यूनतम केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का कालखंड संबंधित राज्य सरकारों की सहमति से पूरी करने की अनिवार्यता है। बंगाल के अधिकारियों के लिए केंद्र सरकार का निर्देश एक ओर पूर्व की सभी नियमों और परंपराओं का उल्लंघन है, जबकि राज्य सरकार की तिलमिलाहट केंद्र-राज्य संबंध की अवधारणा में वह दुर्भाग्यपूर्ण पड़ाव है जहां राज्य में अराजकता दिख रही है।
केंद्र की ओर से जेपी नड्डा पर हमले के संबंध में राज्य सरकार से जांच प्रतिवेदन मांगना उचित था। यह न पूरा किए जाने पर केंद्र राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय एजेंसी, यथा सीबीआई से अंतिम जांच कर अग्रेतर कारवाई करने के विकल्प का चयन कर सकती थी, लेकिन आक्रोश से अभिभूत केंद्र ने सीधे तीन अधिकारियों की केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का आदेश निर्गत कर ऊहापोह की जटिल परिस्थिति उतपन्न कर दी। राजभवन की चेतावनी, केंद्र की अतिरंजित भूमिका और मुख्यमंत्री की अहंकृत प्रतिक्रिया ने बंगाल को एक मुश्किल में तो डाला ही, साथ ही साथ देश में एक अस्वस्थ राजनीतिक संदेश भी दिया है।
केंद्र और बंगाल एक दूसरे को अपने हद में रहने के लिए जो हथियार अपना रहे हैं, वह लोकतांत्रिक मान्यताओं को हाशिये पर डालने पर उतारू है। मुख्यमंत्री के बोल और भाजपा की आक्रामकता भावी चुनाव में माहौल को और बिगाड़ेंगे, इसकी संभावना प्रबल है। चुनाव तो कोई न कोई दल जीत ही लेगा, लेकिन सदा की तरह जनता-जनार्दन शायद पराजय को ही गले लगाएगी। यह भी चिंताजनक है कि सत्ता संग्राम में प्रावधानों के पन्ने अगर स्याह रंग से रंग गए तो सुशासन की डोर निश्चय ही विकास की यात्रा पक्षाघात की शिकार हो जाएगी। प्रभुताई सदा मर्यादा सहनशीलता, क्षमा, समन्वय और सहयोग का पाठ पढ़ाती है।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार