भारत में 1923 में पहली बार मद्रास में मई दिवस मनाया गया और दूसरे विश्वयुद्ध की घोषणा के बाद 2 अक्तूबर, 1939 को बंबई में हुई युद्ध विरोधी हड़ताल में दस हजार से ज्यादा मजदूरों ने हिस्सा लिया था। यह दूसरे विश्व युद्ध के विरोध में हुई पहली हड़ताल थी। एक तरह से मई दिवस साम्राज्यवादी, पूंजीवादी व्यवस्था और युद्धोन्मादी शक्तियों के खिलाफ विरोध की व्यापक अभिव्यक्ति का प्रतीक है।
आज पूंजी का भूमंडलीकरण तो हुआ है, पर श्रम और श्रमिक चेतना का भूमंडलीकरण नहीं हो पाया है। भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में सभी जगह ठेकेदारी का बोलबाला है। आठ घंटे से अधिक कार्य की प्रथा चल पड़ी है। कामगारों की नौकरियां और भविष्य सुरक्षित नहीं हैं। शोषण-उत्पीड़न बढ़ रहा है। वेतन में विषमता बढ़ रही है, महिला कामगारों से भेदभाव, छेड़छाड़, यौन हमले/ उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। मजदूरों/कामगारों के सामने मई 1886 से किसी भी रूप में चुनौतियां कम नहीं हैं। ट्रेड यूनियन चेतना के अभाव में ये खतरे विकराल होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या मई दिवस ट्रेड यूनियन आंदोलन को राजनीतिक दलों की छाया से मुक्त कर सर्वहारा पर अर्थव्यवस्था के दूरगामी असर डालने वाली नीतियों के विरुद्ध और असंगठित क्षेत्र के कृषि और गैरकृषि क्षेत्र के मजदूरों के व्यापक हितों के लिए साझा सार्थक संघर्ष का रास्ता खोज पाएगा? (सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर)
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कैसे अभियान
सरकार या तो पूर्व सरकार की योजनाओं को बंद कर देती है या फिर पुरानी योजनाओं का नाम बदल कर किसी अभियान की शुरुआत करती है। हाल ही में एक नया अभियान शुरू हुआ है- ग्राम उदय से भारत उदय अभियान। इसे नया अभियान कहना तो सही नहीं होगा, क्योंकि इसका स्वरूप वही है जैसे ग्राम सुराज अभियान और लोक सुराज अभियान का था। सरकार ये सारे अभियान जनता का भला करने, उसकी समस्याओं का निराकरण करने के नाम पर आयोजित करती है, लेकिन जनता का भला होने के बजाय भाषण, रैली, नाश्ते के साथ ये महज खानापूर्ति साबित होते हैं। सवाल है कि आखिर ये अभियान हैं किसके लिए? सरकार की इच्छाशक्ति की कमी ही कहा जाए कि इन सारे अभियानों या योजनाओं की सफलता 20-25 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती है।
कमजोरियों को परख कर सुधारने के बजाय तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं को या तो बंद कर दिया जाता है या फिर नई योजनाओं, अभियानों में परिवर्तित कर चालू कर दिया जाता है और परिणाम फिर वही ढाक के तीन पात। अगर हम सरकार के सारे अभियानों-योजनाओं की समीक्षा करते हैं तो पाते हैं कि ये गरीबी उन्मूलन, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य पर केंद्रित होते हैं। इनमें से केवल शिक्षा और स्वास्थ्य के विषय में गंभीरता से सोचें तो लगता है, हमारे सामने शिक्षा और स्वास्थ्य की गंभीर समस्या खड़ी है। दरअसल जितनी बड़ी समस्या के रूप में हम देख रहे हैं उतनी बड़ी है नहीं, बल्कि बनाई गई है, क्योंकि इस समस्या के निदान के लिए सरकार के पास ठोस इच्छाशक्ति का अभाव है। (रवि विजयवर्गीय, पीपलू, टोंक)
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भ्रष्टाचार पर लगाम
मलाईदार विभागों में तैनात चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के पास पचास करोड़, इंजीनियर के पास दो सौ करोड़, प्रशासनिक अधिकारी के पास आठ सौ करोड़ की संपत्ति का मिलना और नेताओं-मंत्रियों के विदेशों में संपत्ति के ब्योरे और बैंकों में खाते मिलना बताता है कि यहां भ्रष्टाचार ने कितनी गहरी जड़ें जमा रखी हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, वे भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की बड़ी-बड़ी बातें तो करती हैं, लेकिन जब कार्रवाई की बात आती है तो तमाम बहाने बनाने लगती हैं। ऐसे में किस पर विश्वास किया जाए?
सरकार को अगर भ्रष्टाचार से सख्ती से निपटना है, तो सबसे पहले कठोर कानून बनाने होंगे। ऐसे कानून कि भ्रष्ट व्यक्ति या कर्मचारी की संपत्ति सील करके अदालतों में दो साल के अंदर उन्हें सजा सुनाई जाए। अगर दोष साबित नहीं होता तो उसकी संपत्ति और खातों पर लगा प्रतिबंध हटा दिया जाए। जब तक देश के नागरिक भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक भ्रष्टाचार का यह खेल चलता ही रहेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझ कर ऐसे अधिकारियों के चेहरे से नकाब उतार देना चाहिए। (विजय कुमार धानिया, रामजस कॉलेज, दिल्ली)
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न्याय का तकाजा
सरकार कहती है कि न्यायाधीश बहुत छुट्टियां मनाते हैं। मुकदमों का ढेर लगा है। छुट्टियां कम करके और देर तक बैठ कर न्यायालय मुकदमों का निपटारा जल्द करें। मुख्य न्यायाधीश माननीय तीरथ सिंह ठाकुर को यह बात नहीं भाई और उनके आंसू छलक गए। उन्होंने बताया कि सारी छुट्टियां खत्म कर दो, दिन-रात काम कर लो तो भी तीन करोड़ अठारह लाख से अधिक पड़े लंबित मुकदमों का निपटारा नहीं हो सकता, जब तक कि मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीशों की नियुक्ति न की जाए। एक जज पर पचास जजों के बराबर का कार्यभार है। उन्होंने बताया कि अमेरिका में नौ जज पूरे साल में इक्यासी मामले सुनते हैं, जबकि हमारे यहां निचली से शीर्ष अदालत तक हर जज औसतन 2600 मामले सुनता है।
आजादी के समय यह अनुपात महज सौ का था। उन्होंने सरकार को याद दिलाया कि 1987 में विधि आयोग की अनुशंसा के अनुसार दस लाख आबादी पर पचास जज होने चाहिए, लेकिन देश में सिर्फ सोलह-सत्रह जज काम कर रहे हैं। इसके अलावा कोर्ट में आधारभूत सुविधाओं का सर्वत्र अभाव है। इसके लिए सरकार जिम्मेवार है, क्योंकि नियुक्तियों और बजट के लिए न्यायालय उसी पर निर्भर हैं। न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर के आंसू कितना पिघला पाएंगे, इस सरकार को। (रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर)
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प्रयोग से आगे
दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण और ट्रैफिक जाम से निजात दिलाने के लिए सम-विषम फार्मूले का प्रयोग हुआ। सार्वजनिक परिवहन को प्रोत्साहित करने के लिए यह अच्छा प्रयोग था, लेकिन दूरगामी और स्थायी परिणाम पाने के लिए कुछ जटिल और व्यावहारिक प्रयोग करने होंगे। अगर यातायात कम करना है तो दिल्ली में लोगों की भीड़ कम करनी होगी। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए लोग दिल्ली की ओर पलायन कर रहे हैं, लिहाजा अनेक दफ्तरों और संस्थानों का दिल्ली से बाहर स्थानांतरित होना आवश्यक है। (शुभम शर्मा, भोपाल)
