हाल के वर्षों में सिविल सेवा परीक्षा में सफल हो रहे अभ्यर्थियों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अभ्यर्थियों का सफलता प्रतिशत कम है। हिंदी भाषा के अभ्यर्थियों में यह धारणा भी व्याप्त है कि उनके साथ भाषाई माध्यम को लेकर भेदभाव होता है जबकि यह धारणा तथ्यगत नहीं है, क्योंकि यूपीएससी की परीक्षा में भाषा को लेकर कोई दुर्भावना नहीं होती। हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के सिविल सेवा परीक्षा में कम चयन के पीछे संभवत: दो कारण हैं। पहला, स्तरीय अध्ययन सामग्री और मार्गदर्शन की कमी और दूसरा, हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों की कमजोर-आर्थिक पृष्ठभूमि, उच्च कोटि के शैक्षिक संस्थानों से दूरी एवं एक लंबे समय तक तैयारी करने के लिए समर्पण की प्रतिबद्धता का अभाव।

हालांकि अब हिंदी में भी स्तरीय अध्ययन सामग्री उपलब्ध है और अच्छी अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी आसानी से मिल जाता है। सीसैट को लेकर भी अभ्यर्थियों में ऊहापोह की स्थिति रहती है, लेकिन अब यह सिर्फ पास करना होता है। मगर वैकल्पिक विषय को लेकर अभी भी एक बेहतर रणनीति बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि पिछले वर्षों में देखा गया है कि सिविल सेवा परीक्षा में सभी वैकल्पिक विषयों में मुख्यत: हिंदी माध्यम में समान उच्च स्तर के अंक नहीं आए हैं। लेकिन हिंदी साहित्य, इतिहास, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र और भूगोल जैसे मानविकी विषयों में हिंदी माध्यम में भी उच्च अंक प्राप्त किए जा सकते हैं।

हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों की दो मुख्य विशेषताएं भी हैं। पहली, इनमें शब्दों को बांधने की अद्भुत कला होती है और दूसरी, हिंदी हमारी मातृभाषा है और मनोविज्ञान के अनुसार मातृभाषा में अपने विचारों को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त किया जा सकता है। इसलिए विश्वास रखें कि यदि आपके पास ज्ञान है तो भाषाई माध्यम मायने नहीं रखता। आवश्यकता है तो सिर्फ नकारात्मकता से बच कर आत्मविश्वास से आगे बढ़ने की, जिससे आशातीत सफलता प्राप्त की जा सके।
आशीष गुप्ता, ईशरापुर, हरदोई

सियासी दांव: चुनाव का बिगुल बजने से ऐन पहले दलों के सियासी दाव-पेंच से जाहिर है कि हर किसी को बाजी अपनी तरफ मोड़ने की बेताबी है। देश का हर छोटा-बड़ा राज्य सीटों के लिहाज से खास है मगर उत्तर प्रदेश खासियत के सभी पैमानों पर खरा उतरता है। कहते हैं, दिल्ली की दावेदारी यहां की अस्सी लोकसभा सीटों से तय होती है। चुनावी तैयारियों के झरोखे से साफ दिखने लगा है कि जरूरी मुद्दों को दरकिनार कर एक-दूसरे पर हमला करती पार्टियां निजी मसले और परिवार से खानदान तक की बखिया उधेड़ने का मन बना चुकी हैं। यों तो कोई भी दल इस मर्ज से अछूता नहीं है फिर भी नेहरू-गांधी परिवार से प्रियंका गांधी के राजनीति में पदार्पण की घोषणा से जुबानी जंग और भी धारदार हो चली है। गौरतलब है कि मेनका और वरुण को इस विरासत का हिस्सा नहीं माना जाता है। बहरहाल, बुनियादी मुद्दों को तलाशती देश की जनता सियासत में वंशवाद के मुद्दे पर पैनी नजर रख रही है जो कभी भी बाजी पलटने का माद्दा रखती है।
एमके मिश्रा, रांची, झारखंड</strong>

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