किसी भी देश में चुनाव का बड़ा महत्त्व होता है क्योंकि इसमें जनता देश के विकास के लिए और अपने सुनहरे भविष्य के लिए जनप्रतिनिधियों को चुनती है। जनता उम्मीद करती है कि उनके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि उनके क्षेत्र के विकास में सहयोग करेगा। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चुनाव की परिभाषा पूरी तरह बदल चुकी है। जैसे-जैसे हम आधुनिक युग में प्रवेश कर रहे हैं, हममें अच्छे कम और बुरे ज्यादा होते जा रहे हैं। चुनाव जाति-धर्म और मंदिर-मस्जिद तक सीमित होकर रह गया है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के चुनाव में 12.50 करोड़ के सामान जब्त किए गए, जिसमें डेढ़ करोड़ की शराब भी पकड़ी गई थी। नगदी, लैपटॉप, साड़ियां, प्रेशर कुकर आदि सामान बरामद गए । मतदाताओं को लुभाने और ज्यादा से ज्यादा वोट पाने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे हथकंडों का खूब इस्तेमाल कर रही हैं। जनता के वोटों की बोलियां लग रही हैं और जनता भी बेच रही है। एक कहावत है- गरीब के थाली में पुलाव आ गया लगता है देश में चुनाव आ गया। वर्तमान में चुनाव विकास के मुद्दे से हट कर धन, बल में आ चुका है। जो पार्टी या नेता जितना ज्यादा पैसा खर्च करती है उसकी जीत उतनी पक्की मानी जाती है।

जनता की भी मानसिकता यही हो गई है कि उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सत्ता में आने के बाद पांच साल तक कुछ नहीं करते, सिर्फ अपना और अपने कुनबे का भविष्य सुनहरा बनाते हैं और प्रतिनिधि भी सोचते हैं जब मैं इतना पैसा खर्च करके सत्ता पाया हूं तो पांच साल क्यों न कमाऊं। दोनों की ऐसी मानसिकता की वजह से देश की आज ये स्थिति हो गई है। इसलिए मतदाताओं को ये सोचना चाहिए कि उनका मत अमूल्य है, उनका सही मत देश के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिए अपने अमूल्य वोट को चंद रुपयों में बेच कर अपना और देश का भविष्य बर्बाद न होने दें।

अमित पांडेय, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

जागरूकता की जरूरत: बलात्कार ऐसा अमानवीय दुष्कर्म है जो पीड़िता का जीवन बर्बाद कर देता है। भारतीय समाज में पिछले कुछ सालों में बलात्कार, सामूहिक बलात्कार की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। देश की राजधानी कही जाने वाली दिल्ली तो ‘रेप राजधानी’ के नाम से भी पहचान बना चुकी है, क्योंकि सबसे अधिक बलात्कार की वारदातें दिल्ली में ही होती हैं और विश्व में भी इसका स्थान इस मामले में 58 वां है। यह बहुत ही शर्मनाक बात है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015 में 1893 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुर्इं। जबकि पूरे भारत में कुल 34651 महिलाएं वर्ष 2015 में दुष्कर्म का शिकार हुई थीं। इससे पिछले साल यानी 2014 में तो हालात और बुरे रहे थे, जब बलात्कार के 36975 मामले दर्ज किए गए थे। आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रत्येक घंटे में बलात्कार की चार वारदातें सामने आती हैं। ऐसे में जल्द से जल्द हमारी सरकारों और हमारे समाज दोनों को तेजी से जागरूक होने की आवश्यकता है ताकि फिर कोई दरिंदा किसी महिला की जिंदगी बर्बाद न कर सके।
सौरभ शुक्ला, दिल्ली स्कूल आॅफ जर्नलिज्म

ये नाम बदलना नहीं: इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अयोध्या कहे जाने को लेकर बहस चली है। भारत में ऐसे स्थानों की लंबी सूची है, जिनका नाम-परिवर्तन 1947 से पहले किया गया था। दक्षिण अफ्रीका की भी ऐसी ही स्थिति थी। वहां एक नामकरण आयोग बना कर हजारों पुराने नाम बहाल किए गए थे। भारत में भी ऐसे आयोग की जरूरत है। गुलामी के दिनों में ही नहीं, आजादी के बाद खासतौर पर कश्मीर में हिंदुत्व का आभास देने वाले ऐतिहासिक नामों को निरंतर बदला गया है। नाम मात्र एक नाम ही नहीं होता, उसके पीछे इतिहास, संस्कृति और लोकश्रुति रहती है, राष्ट्रीय गौरव का भाव रहता है।

कश्मीर में बारामूला, जो वराहमूल शब्द का अपभ्रंश था, को चालाकी से बारामुल्ला बताना शुरू किया। वराहमूल (बारामूला) से इस स्थान पर वराह अवतार के जन्मस्थान होने का आभास मिलता था। इस्लामवादियों को ये क्यों पसंद आता? आज सरकारी अभिलेखों सहित लोकव्यवहार में भी बारामुल्ला शब्द चलन में आ गया है। पीर पंजाल पहाड़ी का प्राचीन नाम पांचाल था। हालांकि मध्ययुगीन इस्लामी शासकों ने ही इस नाम को बदल दिया था, किंतु डोगरा शासकों के समय में पांचाल अथवा पांचालदेव नाम बहाल हो गया था। अब सत्तर साल में पीरपंजाल शब्द को ही चलाया गया है। इसी तरह शाहीकुंड को बदल कर काजीगुंड किया गया। अब अनंतनाग जैसे सुंदर साहित्यिक नाम को इस्लामाबाद नाम द्वारा बदलने की चेष्टा चल ही रही है। श्रीनगर की पुरातात्विक महत्व की शंकराचार्य पहाड़ी को ‘तख्ते सुलेमान’ नाम दिया गया, लेकिन भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के विरोध के चलते यह प्रयास असफल रहा। इनके अलावा लगभग दर्जनभर नाम और बदले जा रहे थे, लेकिन फिलहाल इन पर विराम लग गया है। प्रयागराज और अयोध्या के तो प्राचीन नामों की बहाली है, नाम-बदल नहीं।
’अजय मित्तल, मेरठ

समझ का सवाल: भारत में अनेक प्रकार के धर्म, भाषा और जाति के लोग हैं। सभी धर्मों के लोगों को अपने-अपने धर्म का प्रचार करने की और अपने धर्म को बढ़ावा देने पूर्ण रूप से स्वत्रंता है, बशर्ते इससे किसी को कोई नुकसान न हो और न ही कोई क्षति हो। परंतु क्या ये नुकसान केवल संपत्ति का है? या केवल जान का है? आज कल धर्मों के बीच एक ऐसी प्रतियोगिता आरंभ हो चुकी है जिसका शिकार घर मे बैठे लोग भी हो रहे हैं। और यह प्रतियोगिता है, अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ को दिखाने की। यह प्रतियोगिता कुछ इस प्रकार हैं कि यदि सामने वाले धर्म के लोगों ने अपने किसी त्योहार में यदि बीस साउंड बॉक्स लगाए हैं, तो हम पचास लगवाएंगे। यदि सामने वाले धर्म के लोगों ने दस दिन तक कोई आयोजन किया है, तो हम बीस दिनों तक करेंगें। यदि सामने वाले लोगों ने अपने कार्यक्रम में बीस लाख खर्च किए हैं तो हम तीस लाख खर्च करेंगे। लेकिन ऐसा करते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि उनके ऐसा करने से घर में बुजुर्गों, पढ़ने वाले बच्चों बीमार लोगों को आयोजन के शोर से कितनी परेशानी होतीं हैं। इस बारे में सरकार को जरूर कुछ करना चाहिए।
निखिल कुमार झा, दिल्ली विवि

किसी भी मुद्दे या लेख पर अपनी राय हमें भेजें। हमारा पता है : ए-8, सेक्टर-7, नोएडा 201301, जिला : गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश<br /> आप चाहें तो अपनी बात ईमेल के जरिए भी हम तक पहुंचा सकते हैं। आइडी है : chaupal.jansatta@expressindia.com