किसी भी समाज में भ्रष्टाचार उस दीमक की तरह है जो भीतर ही भीतर उसकी जड़ों को खोखला कर देती है। अगर जड़ें ही खोखली हो जाएं तो समाज किसके सहारे खड़ा होगा! हमारे देश में भी हर जगह यह दीमक लग चुकी है। पुलिस, प्रशासन, राजनीति कुछ भी इससे अछूता नहीं है। सरकारी विभागों में मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है तो सार्वजनिक हित के लिए बनने वाली योजनाओं पर भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों की गिद्ध दृष्टि टिकी होती है। घोटाले अब करोड़ों और अरबों के होने लगे हैं। बोफर्स से शुरू हुई कहानी टू-जी स्पैक्ट्रम तक पहुंच चुकी है। जनता की गाढ़ी कमाई का जो पैसा देश के विकास पर खर्च होना चाहिए वह नेताओं और अधिकारियों के लॉकरों में पहुंच जाता है।

भ्रष्टाचार के प्रति समाज का नजरिया तक बदल चुका है, किसी हद तक हम उसे स्वीकार भी कर चुके हैं। बहुत-से उदाहरणों में गड़बड़ियों को हम यह कह कर टाल देते हैं कि इतना तो चलता ही है! हम अपनी सहूलियत के हिसाब से भ्रष्टाचार के मानक तय कर लेते हैं और अपने आराम के लिए इसे बढ़ावा भी देते हैं। बात जब बड़े स्तर की होती है, तो बड़ी योजनाओं में शामिल लोग अपने स्तर पर यही करते हैं और मौकापरस्त बन जाते हैं।

हाल ही में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में सालाना 6,350 करोड़ रुपए रिश्वत का लेन-देन होता है। यह आंकड़ा 2005 से कम है। तब सालाना 20,500 करोड़ रुपए की रिश्वत का लेन-देन होता था। रिपोर्ट के मुताबिक मध्य भारत के राज्यों के मुकाबले दक्षिणी राज्यों में भ्रष्टाचार ज्यादा है। रिश्वत देने में सबसे आगे 77 प्रतिशत लोगों के आंकड़ों के साथ कर्नाटक है। दूसरे स्थान पर आंध्र प्रदेश 74 प्रतिशत और तीसरे नंबर पर तमिलनाडु 68 प्रतिशत है। वहीं हिमाचल प्रदेश सबसे कम भ्रष्टाचार वाला राज्य है जहां केवल तीन फीसद लोगों को रिश्वत देनी पड़ी।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ओर से जारी किए गए भ्रष्टाचार संबंधी सूचकांक में भारत की रैंकिंग गिरी है। पिछले साल के मुकाबले तीन स्थान खिसक कर भारत 79वें नंबर पर आ गया है। अब हमारे समाज और न्याय व्यवस्था को कुछ बड़े उदाहरण पेश करने होंगे। लोगों के भीतर एक डर भी बैठाना होगा, भ्रष्टाचार के परिणाम का। हालांकि कुछ मामलों में प्रशासन और न्याय व्यवस्था ने मिसालें भी पेश की हैं लेकिन काम सिर्फ मिसाल से नहीं चलने वाला। बुराई की एक-एक शाखा को ढूंढ़-ढूंढ़ कर खत्म करना होगा।
भरत यादव, बीएचयू, वाराणसी

घातक तनाव: पिछले दिनों भारत-पाक सीमा (बाड़मेर) पर तैनात सीमा सुरक्षा बल के एक जवान ने छुट्टी न मिलने के चलते अवसाद की गिरफ्त में आकर अपने दो साथियों को गोली मार कर जख्मी कर दिया। जवानों में बढ़ता अवसाद और इस तरह की सनसनीखेज घटना कई तरह के सवालों को जन्म देती है कि क्या वाकई जवानों को समय पर छुट्टी नहीं मिलती? उन्हें पौष्टिक आहार नहीं मिलता? उनके रहने के लिए अच्छे इंतजाम नहीं हैं? और आखिर में मूल प्रश्न यह कि क्या उन पर मानसिक व शारीरिक दबाव इतना अधिक होता है कि उसके चलते वे ऐसे गलत कदम उठाने को मजबूर होते हैं? इन सब प्रश्नों का सही उत्तर यही हो सकता है कि सरकार और उच्च पदस्थ अधिकारी सेना के जवानों पर विशेष ध्यान दें और उन्हें समय-समय पर वाजिब अवकाश भी दें ताकि वे कुछ समय अपने परिवार और बच्चों को भी दे सकें।
प्रदीप कुमार सारण, कृष्ण नगर, बीकानेर

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