कश्मीर एक बार फिर चर्चा में है। वैसे तो सालभर वह किसी न किसी वजह से टीवी की बहसों, खबरिया चैनलों की ‘ब्रेकिंग न्यूज’ तो कभी अखबारी सुर्खियों में रहता है। कभी अलगाववादी पाकिस्तान जाने की बात कहते हैं तो कभी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) के छापों से बिलबिला पड़ते हैं। कभी हमारे जवानों के आतंकियों से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त होने की दुखद खबर खबरें आती हैं तो कभी आतंकवादियों को मौत के घाट उतारने की कामयाबी हमारे वीरों के खाते में दर्ज होती है। कभी इन्हीं जवानों द्वारा कश्मीर के बच्चों को पढ़ाने से लेकर उन्हें सही दिशा में प्रेरित करने के लिए सेना और प्रशासनिक सेवाओं में जाने की निशुल्क कोचिंग मुहैया कराने की सकारात्मक खबरें भी आती हैं। इस सबसे लगता है कि कश्मीर में बदलाव की बयार बह रही है। वहां लोग अब बंदूक छोड़कर कलम पकड़ रहे हैं और बम की जगह विकास की बातें कर रहे हैं। पर उसी राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री कह रही हैं कि अनुच्छेद 35 के साथ छेड़छाड़ बारूद को चिंगारी दिखाने जैसी होगी। आखिर क्या कारण है कि घाटी में महज दस हजार सैनिक बढ़ाए जाने की बात सुन कर महबूबा मुफ्ती इतनी आग-बबूला हो रही हैं?
दरअसल, अनुच्छेद 35 के जरिए घाटी के कट््टरपंथी अलगाववादी और सियासतदान अपनी राजनीति की दुकानें चलाते रहे हैं। इन्होंने कश्मीरियों की पढ़ाई-लिखाई और रोजगार बंद कर दिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में। इन्हीं के बच्चे सीमा पार से आ रहे पैसे से विदेशों में पढ़ रहे हैं। ये चंद लोग बात-बात पर कश्मीरियों को उकसा कर, बहला-फुसला कर आतंकी और जिहादी भी बना रहे हैं। इन्हीं की करतूतों के कारण कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी पूरी तरह से भारत का नहीं लगता है। मौजूदा केंद्र सरकार पुरजोर प्रयास कर रही है वहां के सभी लोगों तक पहुंचने के लिए। हाल ही में ‘मन की बात में’ प्रधानमंत्री ने कश्मीर में चलाए जा रहे ‘बैक टू विलेज’ कार्यक्रम की तारीफ की। इसके तहत कश्मीर के शोपियां, अनंतनाग, कुलगाम, पुलवामा में अधिकारियों ने एक रात और दो दिन बिताए ताकि आम कश्मीरियों को विश्वास दिलाया जा सके कि सरकार को उनकी फिक्र है और वे खुद को भारत से अलग न समझें। ऐसे छोटे मगर प्रभावी कदमों के कारण ही आज कश्मीर का परिदृश्य धीरे-धीरे बदल रहा है। इससे जहां सालों पहले अपनी जन्मभूमि छोड़ गए कश्मीरी पंडित वापस आ रहे हैं तो वहीं पिछले वर्ष कश्मीर का बारामुला जिला पिछले सत्तर सालों में पहली बार आतंक मुक्तजिला घोषित हुआ है।
अफसोस की बात है कि कुछ लोगों को यह बदलाव रास नहीं आ रहा है। एक तरफ अमरनाथ यात्रा में रिकार्ड संख्या में श्रद्धालु देश के कोने-कोने से पहुंच रहे हैं तो दूसरी ओर कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री का कहना है कि अमरनाथ यात्रा से कश्मीरियों को दिक्कत होती है। कौन नहीं जानता कि पर्यटन कश्मीर के लोगों की जीवन रेखा है। अगर किसी राज्य में पर्यटकों की संख्या बढ़ती है तो वहां रोजगार भी बढ़ता है और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती है। पर सत्ता को सेवा की जगह सिर्फ मेवा का जरिया समझने वालों को यह बात कहां समझ आएगी? वे तो चाहते हैं कि आम कश्मीरी अनपढ़ रहे, देश-दुनिया से कटा रहे। पिछले वर्ष पंचायत चुनाव को लेकर भी महबूबाजी का विरोध था पर क्यों, इसका कोई जवाब नहीं मिला। क्या पंचायतों का गठन नहीं होना चाहिए? कश्मीर के लोगों ने 71 फीसद मतदान कर और पंचायत चुनाव में बढ़-चढ़कर भाग लेकर बता दिया कि वे धमाकों की धमकी से नहीं डरने वाले और कश्मीर की वह पुरानी प्रतिष्ठा बहाल करना चाहते हैं जब उसे धरती का स्वर्ग कहा जाता था।
’देवानंद राय, दिल्ली</p>

