भाषा का आनंद लेने के लिए भाषा-शास्त्र का जानकार या भाषा-विज्ञान का विद्यार्थी होना जरूरी नहीं होता। भाषा अपने किसी भी रूप में हो, लिखित या संवाद की भाषा, उसकी बहुरंगी भंगिमाएं सबके लिए एक सहज आकर्षण होती हैं। हमने पढ़ा-सुना था कि देशी-विदेशी और नए शब्दों को अपनाने से भाषा का विस्तार होता है, भाषा अमीर होती है। आज कुछ अलग स्तर पर सही, यह सच उभर कर सामने आया है।
मौजूदा राजनीति और टीवी चैनलों को साधुवाद कि कुछ जाने और कुछ अनजाने शब्दों ने भाषा के तेवर ही बदल डाले। ‘जाने’ हुए शब्दों की बात करें तो कितने ही शब्द- देशद्रोही, राष्ट्रवादी, चौकीदार आदि देखते ही देखते अचेतन की गुहाओं से बाहर निकल आए और सिर चढ़ कर बोलने लगे। अंग्रेजी का ‘सेंट्रल विस्टा’ तो अभी नया-नया लोकप्रिय हुआ है। कुछ साल पहले स्मार्ट, स्टैंड-अप जैसे शब्दों और एक अनजाने विशेषण ‘अर्बन-नक्सल’ ने भाषा को क्या ही आधुनिक रूप दिया! एक शब्द ‘गैंग’ ने तो धमाका ही कर दिया था, जब टीवी एंकरों की नवोन्मेषी प्रतिभा ने एक ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ से अपने दर्शकों को रूबरू कराया था और आगे चल कर उसी तर्ज पर कुछ और ‘गैंग’ शब्द अस्तित्व में आए। हालांकि इसके पहले ‘गिरोह’ शबद चलम आम था ही।
दूसरी ओर, आंदोलनों ने भी भाषा को नए शब्दों से नवाजा है। एक दिन किसान-आंदोलन की जमीन पर दूर कहीं एक शब्द उगा- ‘आंदोलनजीवी’ और साथ ही एक ‘परजीवी’ नवीन कलेवर में मेजों की थपथपाहट के बीच फिजा में मंडरा उठा। आंदोलनों के साथ-साथ देखा जाए तो नए शब्द गढ़ने में एक अहम भूमिका चुनावी रैलियों की होती है। अभी पश्चिम बंगाल के चुनावों में शब्द ही नहीं, संबोधन-शैली के भी कमाल दिखे।
इस तरह कुछ छोटे शब्द समूह भी लोकप्रिय हो जाते हैं और इनसे भाषा को नए आयाम मिलते रहे हैं, उसके भंडार में इजाफा होता रहा है। हमें मान लेना चाहिए कि हमारी भाषा दिन-प्रतिदिन अमीर होती जा रही है। दर्शकों और श्रोताओं को बहुत कुछ परोसा जाता है। वे उसे हंस कर या कभी घुट कर, कहीं खुले मन से तो कभी विरक्त भाव से स्वीकार कर ही लेते हैं।
-शोभना विज, पटियाला, पंजाब</strong>