अक्सर यह कहते हमारी जबान नहीं थकती कि बुरे लोगों की जाति नहीं होती, उनका कोई धर्म नहीं होता और उनका सगा भी अपना नहीं होता, क्योंकि वे मानवता को अपने कुकृत्यों से कलंकित करते हैं। इन बुरे लोगों में सभी ऐसे लोग शामिल हैं जो हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे घृणित कार्यों द्वारा लोगों को भारी क्षति पहुंचाते हैं। बहरहाल, शर्म और लज्जा की बात यह है कि अपने समाज में ऐसे लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं जो अगर डाकू अपनी जाति का है तो गर्व का अनुभव करते हैं।
इधर कुछ लोग आतंकियों के लिए भी सांप्रदायिक आधार पर सहानुभूति या नफरत दर्ज करते रहते हैं। ‘दूसरी’ जाति या धर्म का हुआ तो आतंकवादी, अपनी जाति या धर्म का हुआ तो हीरो! यह कैसा दिमागी विकास है? सवाल यह है कि हम सभी चुप क्यों नहीं रह सकते हैं? ऐसे मामलों में हमारे समूचे समाज को एक इकाई की तरह नजर आना चाहिए। नेताओं को भी विवेकसम्मत बात कहनी चाहिए। इस तरह के मामलों में निजी राय कोई महत्त्व नहीं रखती। सभी इस मामले में संजीदा रहें।
आतंकवादी या गुंडे से धर्म, जाति या क्षेत्र के आधार पर सहानुभूति नहीं दशार्नी चाहिए। सांप बस सांप होता है और उसमें हमारे सांप तुम्हारे सांपों से बेहतर हैं, यह दृष्टिकोण आत्मघाती है।
’सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली</p>