मौजूदा दौर में युवक-युवतियों द्वारा कई बार प्रेम प्रसंग और किसी परीक्षा में इच्छित परिणाम न आने के कारण आत्मघाती कदम उठा लिए जाते हैं। ऐसी खबरें रोज मीडिया में आती रहती हैं। कभी-कभार ऐसे मामलों में असफल होने के भय मात्र से उनके द्वारा आत्मघाती कदम उठा लिए जाते हैं। आखिर हमारे अरमान जीवन पर भारी क्यों पड़ जाते हैं? ऐसे युवा अपने जीवन जीने के अधिकार का हनन क्यों करते हैं? जबकि उन्हें वन और वन्यजीवों तक के संरक्षण की शिक्षा दी जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अनमोल है। इसे किसी भी सूरत में समाप्त करने का हक खुद या किसी और को नहीं है। परीक्षा जीवन का पड़ाव है, मंजिल नहीं। यह युवा पीढ़ी को समझाना जरूरी है। आखिर यह हमारी कैसी शिक्षा व्यवस्था है, जो सफलता को सीमित दायरे में बांधना सिखा रही है। अफसोस की बात है कि देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे अरमानों को पंख देने वाले विभिन्न कोचिंग संस्थान खुल गए हैं जो अभिभावकों एवं बच्चों को महत्त्वाकांक्षी बना रहे हैं।
प्रतिस्पर्धा ही सब कुछ है, ऐसी बात नहीं है। उससे ज्यादा जरूरी है कि ऐसे संस्थान स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और सहयोग के भाव छात्र-छात्राओं में भरें, ताकि तमाम बोर्डों के परीक्षा परिणाम और प्रतियोगी परीक्षा में असफलता या असफल होने के भय से गलत कदम उठाने से वे बचें। सवाल यह भी है कि हम सफल क्यों होना चाहते हैं? इसलिए न कि एक सुंदर और स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकें। प्रेम प्रसंग में हत्या या आत्महत्या करने वाले या परीक्षा में असफलता के भय मात्र से अप्रिय कदम उठाने वाले या यह समझाने वाले अभिभावक-शिक्षक कि अगर असफल हुए तो सब कुछ डूब जाएगा। यह कैसा समाज बन रहा है?
- मुकेश कुमार मनन, पटना</strong>